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________________ चारित्र चक्रवर्ती कुलीन पूर्वज परम्परा अर्थात सज्जति आदि अयत्न प्राप्त गुण __ लगभग तीन सौ वर्ष पूर्व एक विद्याधर नाम के पीठाधिकारी, दिगंबर, प्रभावशाली तथा प्रतिभा संपन्न निर्ग्रन्थ मुनिराज हुए थे। उनका समाधि स्थान बेलगाँव जिले के अंतर्गत चीकोड़ि तालुका का अक्कवाट ग्राम है। उस स्थान पर आज भी अमावस्या को वंदनार्थ जैन श्रावक व अन्य धर्म के लोग जाया करते हैं। उनके पश्चात् श्री नेमगौंडा, सातगौंडा प्रभावशाली मुनि हुए। जिस चतुर्थ जाति में महाराज का जन्म हुआ, उसमें बड़े बड़े प्रभावशाली रत्नत्रय धारी तथा वीतरागशासन के प्रभावक नर रत्न हुए हैं। इनकी नौ पीढ़ियों का वंश वृक्ष बताता है कि सभी लोग भूमिपति पाटिल थे। उनके द्वारा धर्म तथा जनता को गौरवान्वित करने वाले महान् कार्य सम्पन्न हुए। इनके जनक तथा जननी का विशुद्ध वंश होने के कारण इनको सप्त परम स्थानों में से प्रथम स्थान ‘सज्जातित्व' समलंकृत कहा जायेगा। ये सज्जातित्व, सद्गृहित्व, परिव्राजक पद, सुरेन्द्र पद, साम्राज्य पद, अहँत पद, तथा निर्वाण पद, इन सप्त परम स्थानों/श्रेष्ठ पदों में से, पदत्रय विभूषित महापुरुष हैं। ___ महापुराण में बताया है कि मनुष्य जन्म के प्राप्त होने पर मुनि दीक्षा धारण के योग्य पवित्र वंश में विशुद्ध जन्म धारण करना सज्जाति है। पिता के वंश की शुद्धता को कुल कहते है तथा माता के वंश की निर्मलता को जाति कहते हैं। माता तथा पिता के वंशों की शुद्धता को सज्जाति कहते हैं। इसके होने पर अयत्न प्राप्त गुणों के कारण रत्नत्रय की प्राप्ति सुलभ होती है। परिवार व नाम संस्कार (शांति की मूर्ति होने से नाम सात) इनके आदिगौंडा और देवगौंडा नाम के दो ज्येष्ठ बंधु थे। कुंमगौंडा नाम के अनुज थे। बहिन का नाम कृष्णा बाई था। इनके शांत भाव के अनुरूप उन्हें सातगौंडा कहते थे। गौंडा शब्द भूमिपति-पाटिल का घोतक है। ये तृतीय पुत्र थे। इसीसे मानव प्रकृति ने इन्हें रत्नत्रय और तृतीय रत्न सम्यक्चारित्र का अनुपम आराधक बनाया। सज्जातिः सद्गृहित्वंचपारिव्राज्यं सुरेन्द्रता । साम्राज्यं परमार्हन्त्यं परं निर्वाणमित्यपि ॥६७, पर्व ३८, महापुराण॥ स नृजन्म परिप्राप्तौ दीक्षायोग्ये सदन्वये । विशुद्धं लभते जन्मसैषा सज्जाति रिष्यते ॥८३, पर्व ३६, महापुराण ॥ पितुरन्वयशुद्धिर्या तत्कुलं परिभाष्यते । मातुरन्वयशुद्धिस्तु जातिरित्यभिलप्यते ॥ ८५, पर्व ३६, महापुराण॥ विशुद्धिरु भयस्यास्य सज्जातिरनुवर्णिता। यत्प्राप्तौ सुलभाबोधिरयत्नोपनतैर्गुणैः ।।८६, पर्व ३६, महापुराण॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003601
Book TitleCharitra Chakravarti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year2006
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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