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________________ प्रथम अध्ययन : पुण्डरीक महाभूत हो नहीं सकते, क्योंकि ये पाँचों ही महाभूत जड़ हैं, चेतन नहीं, ऐसी दशा में वे जगत् के कर्ता कैसे हो सकते हैं ? ___ यदि कहें कि शरीर के आकार में परिणत पंचमहाभूत चेतन हैं तो यह भी युक्तिविरुद्ध है, क्योंकि जब तक इन पंचमहाभूतों का अधिष्ठाता कोई चेतन पदार्थ नहीं माना जाएगा, तब तक शरीर के आकार में इनका परिणत होना ही असम्भव है। बिना कारण के परिणाम हो नहीं सकता । अतः शरीर के आकार में पंचमहाभूतों के परिणाम का कारण आत्मा को मानना ही युक्तियुक्त है। इसलिए पूर्वोक्त सांख्यों और नास्तिकों के मत सर्वथा युक्तिरहित हैं । यद्यपि सांख्यों एवं नास्तिकों का पंचमहाभूतवाद मानने योग्य नहीं है, तथापि थे लोग अपने मतों को सत्य समझते हए, उन पर श्रद्धा, प्रतीति और रुचि रखते हुए धड़ल्ले से दूसरों को उपदेश देते हैं। दूसरों के दिल-दिमाग में अपने खोटे सिद्धान्तों को ठसाकर उन्हें अपने भक्त बना लेते हैं। वे अन्धभक्त भी इन खोटे मतों को भी सत्य मानकर अपने आपको कृतार्थ समझते हैं और अपने उपदेशकों के उपभोग के लिए नाना प्रकार की विषय-भोगसामग्री अर्पण करते रहते हैं। विषय-भोगसामग्री पाकर वे तथाकथित धर्मोपदेशक सांसारिक सुख-भोगों में इस प्रकार आसक्त हो जाते हैं, जैसे भारी दलदल में हाथी फंस जाता है। इस प्रकार ये लोग इस लोक से तो भ्रष्ट हो ही जाते हैं, परलोक को भी बिगाड़ डालते हैं इसलिए उससे भी भ्रष्ट हो जाते हैं। ये स्वयं संसार-पुष्करिणी को पार नहीं कर सकते हैं । श्वेतकमल के समान निर्वाण को पाना तो बहुत दूर रहा, ये अपना उद्धार भी विषय-भोगों के कीचड़ से निकलकर नहीं कर सकते, दूसरों का उद्धार तो कर ही कैसे सकते हैं। अतः विषयभोग के कीचड़ में फंसकर ये द्वितीय कोटि के पुरुष भी निरन्तर संसार में परिभ्रमण करते रहते हैं । ये श्वेतकमलसम निर्वाण को नहीं पा सकते । यह दूसरे पंचमहाभूतिक पुरुष का वर्णन है । सारांश दूसरे पुरुष की कोटि में पाँचमहाभूतिक नास्तिक एवं सांख्य परिगणित किये गये हैं, जो जड़ पाँच महाभूतों से ही सारी सृष्टि की उत्पत्ति, विनाश और स्थिति मानते हैं, उसी का प्रचार करते हैं, उसी मत के दलदल में स्वयं फँसकर दूसरों को फंसाते हैं और अपने अनुयायीगणों से विषयभोगों की सामग्री प्राप्त कर उसी के कीचड में फंस जाते हैं। वे स्वयं अपना उद्धार भी नहीं कर सकते, दूसरों का उद्धार तो दूर की बात है । अतः वे संसार में ही गोते लगाते रहते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003600
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1981
Total Pages498
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size23 MB
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