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________________ सूत्रकृतांग सूत्र के द्वारा नहीं । पृथ्वी आदि पाँच महाभूत इन तीनों गुणों द्वारा ही उत्पन्न हैं । अतः प्रकृति ही इन सबकी अधिष्ठात्री है । प्रकृति त्रिगुणात्मिका होती है, उससे बुद्धि (महत्) तत्त्व, महत्तत्त्व से अहंकार, अहंकार से रूप-रस आदि पाँच तन्मात्राओं ( सूक्ष्म भूतों) की उत्पत्ति होती है । पाँच तन्मात्राओं से पृथ्वी आदि पाँच महाभूत, पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ पाँच कर्मेन्द्रियाँ और मन उत्पन्न होते हैं । यों कुल २४ पदार्थ ही समस्त विश्व के परिचालक है । २५वाँ पुरुष भी एक तत्त्व है, पर वह भोग तथा बुद्धि को प्रकाशित करने के सिवाय और कुछ नहीं करता । से गृहीत पदार्थ ५६ ऐसी स्थिति में सांख्यमतानुसार प्रकृति ही समस्त कार्य करती है । पुण्य-पाप आदि सभी क्रियाएँ प्रकृति ही करती है । इसीलिए शास्त्रकार कहते हैं- 'से किणं किणावेमाणे, हणं घायमाणे णत्थित्थ दोसो ।' आशय यह है कि सांख्यदर्शन के पूर्वोक्त मतानुसार भारी से भारी पाप करने पर भी आत्मा ( पुरुष ) को उसका दोष (लेप) नहीं लगता, वह तो निर्मल ही बना रहता है । एकेन्द्रिय प्राणी की तो बात ही क्या, पंचेन्द्रिय प्राणी तक को कोई खरीदता - खरीदवाता है तथा धात करताकरवाता है, उसका मांस पकाता- पकवाता है तो भी आत्मा ( पुरुष ) को उसका पापदोष नहीं लगता, क्योंकि आत्मा बिलकुल निर्लेप और निष्क्रिय है, सब कार्य प्रकृति ही करती है । वस्तुतः विचारकों की दृष्टि में यह मत बिलकुल निःसार और युक्तिरहित है । सांख्यवादी पुरुष को चेतन और प्रकृति को अचेतन तथा नित्य कहते हैं, भला अचेतन और नित्य प्रकृति विश्व को कैसे उत्पन्न और संचालित कर सकती है ? क्योंकि वह ज्ञानरहित एवं जड़ है । तथा सांख्य की दृष्टि में जो वस्तु है ही नहीं, वह कभी नहीं होती और जो है, उसका अभाव नहीं होता, अतः जिस समय प्रकृति और पुरुष दो ही थे, उस समय यह विश्व तो था ही नहीं, फिर यह कैसे उत्पन्न हो गया ? सांख्यवादी के पास इसका उत्तर नहीं है । सांख्यों का आत्मा ( पुरुष ) तो बेचारा पाप-पुण्य कुछ भी नहीं करता, फिर उसे सुख-दुःख क्यों भोगने पड़ते हैं ? प्रकृति ने पुण्य-पाप किये हैं, इसलिए उचित और न्यायसंगत तो यही है कि प्रकृति ही उनका फल भोगे । प्रकृति के द्वारा कृत पुण्य-पाप का फल यदि पुरुष भोगता है, तो देवदत्त के पुण्य-पाप का फल यज्ञदत्त क्यों नहीं भोगता ? अत: दूसरे के किये हुए कर्मों का फल दूसरा भोगे, यह कदापि सम्भव नहीं है । तथा जड़ से विश्व की उत्पत्ति मानना भी असंगत है । इसी तरह सांख्यों का आंशिक पंचमहाभूतवाद तथा नास्तिकों (लोकायतिकों ) का पंचमहाभूतवाद दोनों ही मिथ्या हैं। क्योंकि विश्व के कर्ता या संचालक पंच Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003600
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1981
Total Pages498
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size23 MB
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