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प्रथम अध्ययन : पुण्डरीक
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पुढो भूतसमवाय जाणेज्जा ) उस भूत समूह को पृथक्-पृथक् नामों से जानना चाहिए । ( तं जहा ) जैसे कि ( पुढवी एगे महन्भूए) पृथ्वी एक महाभूत है, (आऊ दुच्चे महन्भूए) जल दूसरा महाभूत है, (तेऊ तच्चे महब्भूए) तेज (अग्नि) तीसरा महाभूत है, ( वाऊ चत्थे महभूए) वायु चौथा महाभूत है, ( आगासे पंचमे महम्भू ए ) आकाश पाँचवाँ महाभूत है, ( इच्चए पंच महन्भूया अणिम्मिया अणिम्माविया) ये पाँचों महाभूत किसी कर्ता के द्वारा बनाए हुए नहीं हैं तथा किसी के द्वारा बनवाये हुए भी नहीं हैं ( अकडा णो कित्तिमा जो कडगा) ये किये हुए नहीं हैं, अर्थात् कृत्रिम नहीं हैं और न अपनी उत्पत्ति के लिए किसी की अपेक्षा रखते हैं । ( अणाइया अणिहणा भवंझा) ये पाँचों महाभूत आदि एवं अन्त रहित हैं और अबन्ध्य हैं - यानी सब कार्यों के सम्पा दक हैं, ( अपुरोहिया सतंता सासया ) इन्हें कार्य में प्रवृत्त करने वाला कोई दूसरा पदार्थ नहीं है, ये स्वतन्त्र एवं शाश्वत हैं, (एगे पुण आयछठ्ठा) कोई पंचमहाभूत और छठ आत्मा को मानते हैं । ( एवमाहु) वे इस प्रकार कहते हैं कि (सतो विणासो असतो संभवो णत्थि ) सत् का विनाश और असत् की उत्पत्ति नहीं होती है । (एयावया व जीवकाए ) वे पंचमहाभूतवादी कहते हैं कि इतना ही जीव है ( एयावया व afrate errant a सव्वलोए) इतना ही अस्तिकाय यानी अस्तित्व है, तथा इतना ही सारा लोक है । (एयं लोगस्स मुहं करणयाए) तथा ये पाँच महाभूत ही लोक के मुख्य कारण हैं । ( अविअंतसो तणमायमवि) अधिक क्या कहें, एक तिनके का कम्पन भी इन पंच महाभूतों के कारण ही होता है । ( से किणं किणावेमाणे हणं धायमाणे पयं पयावेमाणे अविअंतसो पुरिसमवि कीणित्ता घायइत्ता एत्थं पि जाणाहि णत्थित्य दोसो) अतः स्वयं खरीद करता हुआ और दूसरे से खरीब कराता हुआ एवं प्राणियों का स्वयं घात करता हुआ एवं दूसरे से घात कराता हुआ, स्वयं पकाता और दूसरों से पकवाता हुआ पुरुष दोष का भागी नहीं होता । यदि वह किसी मनुष्य को खरीदकर उसका घात कर दे तो इसमें भी कोई दोष नहीं है, यह जानो । (ते) इस प्रकार के सिद्धान्त को मानने वाले वे पंचमहाभूतवादी ( किरियाइ वा जाब अणिरएइ वा णो विप्पडियेदेति ) क्रिया से लेकर नरक से भिन्न गति तक के पदार्थों को नहीं मानते हैं । ( ते विरूवरूवहि कम्मसमारंभेहि भोयणाए विरूवरूवाइं कामभोगाई समारभंति) वे नाना प्रकार के सावद्य कार्यों द्वारा काम-भोगों की प्राप्ति के लिए सदा आरम्भ - समारम्भ में प्रवृत्त रहते हैं, ( एवमेव ते अणारिया विप्पडिवन्ना) अतः वे अनार्य तथा विपरीत विचार वाले हैं । (तं सद्दहमाणा तं पत्तियमाणा जाव इइ) इन पंच महाभूतवादियों के धर्म में श्रद्धा रखने वाले और इनके धर्म को सत्य मानने वाले राजा आदि इन्हें विषय-भोग की सामग्री अर्पण करते हैं, (ते णो हव्वाए णो पाराए अंतरा कामभोगेसु विसण्णा) वे उन विषयभोगों में प्रवृत्त होकर न इस लोक के रहते हैं और न परलोक के ही होते हैं, किन्तु
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