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________________ सूत्रकृतांग सूत्र लोकः । एतन्मुख्यं लोकस्य कारणम्, अप्यन्तशस्तृणमात्रमपि । स क्रीणन् क्रापयन् घ्नन् घातयन् पचन् पाचयन् अप्यन्तश: पुरुषमपि क्रीत्वा घातयित्वा अत्राऽपि जानीहि नास्त्यत्र दोषः । ते नो एवं विप्रतिवेदयन्ति, तद्यथा क्रियेति वा, यावत् अनिरय इति वा । एवं ते विरूपरूपैः कर्मसमारम्भैः विरूपरूपान् कामभोगान् समारभन्ते भोगाय । एवमेव ते अनार्याः विप्रतिपन्ना तत् श्रद्दधानाः, तत् प्रतियन्तः यावदिति । ते नोऽर्वाचे नो पाराय, अन्तरा कामभोगेषु विषण्णा: । द्वितीयः पुरुषजातः पांचमहाभूतिक इत्याख्यायते ॥ सू० १० ॥ ___ अन्वयार्थ (अहावरे दोच्चे पुरिसजाए पंचमहन्भूइएत्ति आहिज्जइ) पूर्वोक्त प्रथम पुरुष से भिन्न दूसरा पुरुष पांचमहाभूतिक कहलाता है। (इह खलु पाईणं वा ६ संतेगइया मणुस्सा भवन्ति) इस मनुष्यलोक की पूर्व पश्चिम आदि दिशाओं में मनुष्यगण रहते हैं। (अणु पुग्वेणं लोयं उववन्ना) वे अनुक्रम से नाना रूपों में मनुष्यलोक में उत्पन्न हुए होते हैं, (तं जहा-वेगे आरिया वेगे अणारिया) जैसे कि कोई आर्य होते हैं, कोई अनार्य होते हैं, (एवं वेगे जाव दुरूवा) इसी तरह पूर्व सूत्रोक्त वर्णन के अनुसार कोई कुरूप आदि होते हैं । (तेसिं च णं एगे महं राया भवइ) उन मनुष्यों में से कोई एक महान् पुरुष राजा होता है (महया० एवं चेव गिरवसेसं जाव सेणावइपुत्ता) वह राजा पूर्वसूत्रोक्त विशेषणों से युक्त होता है, और उसकी सभा भी पूर्वसूत्रोक्त सेनापति-पुत्र आदि से युक्त होती है। (तेसि च णं एगइए सढ्ढी भवइ) उन सभासदों में से कोई पुरुष धर्म में श्रद्धालु होता है, (तं गमणाए समणा माहणा य संपहारिसु) उनके पास जाने का वे श्रमण और माहन निश्चय करते हैं, (तत्थ अन्नयरेणं धम्मेणं पातारो वयं इमेण धम्मेण पत्रवइस्सामो) वे किसी एक धर्म की शिक्षा देने वाले अन्यतीर्थी श्रमण और माहन राजा आदि से कहते हैं कि 'हम आपको अपने धर्म की शिक्षा देंगे।' (भयंतारो) वे उनसे कहते हैं-हे भयनाताओ ! प्रजा के भय का अन्त करने वालो ! (जहा मए एस सुयक्खाए धम्मे सुपन्नत्ते भवइ से एवमायाणह) मैं जो इस उत्तम धर्म का उपदेश देता हूँ, उसे आप सत्य समझें (इह पंचमहन्भूया खलु) इस जगत् में पाँच महाभूत ही सब कुछ हैं, (जेहिं नो विज्जइ किरियाइ वा अकरियाइ वा) जिनसे हमारी क्रिया, अभिक्रिया, (सुक्कडेति वा दुक्कडेति वा) सुकृत या दुष्कृत (कल्लाणेति वा पावएति वा) कल्याण या पाप (साहुइ वा असाहुइ वा) भला या बुरा, (सिद्धीइ वा असिद्धीइ वा) सिद्धि या असिद्धि (णिरएति वा अणिरएति वा) नरक गति या नरक के अतिरिक्त अन्य गति एवं (अविअंतसो तणमायमवि) अधिक कहाँ तक कहें ? तिनके के हिलने जैसी क्रिया भी इन्हीं पंचमहाभूतों से होती है। (सं च पिहुद्द सेणं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003600
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1981
Total Pages498
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size23 MB
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