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सूत्रकृतांग सूत्र
बीच में ही काम-भोगों में आसक्त होकर कष्ट पाते हैं। (दोच्चे पुरिसजाए पंचमहब्भूएत्ति आहिए) यह दूसरा पुरुष पंचमहाभूतिक कहलाता है ।।
व्याख्या
दूसरा पंचमहाभूतिक पुरुष : स्वरूप, विश्लेषण प्रथम पुरुष के वर्णन के बाद दसवें सूत्र में शास्त्रकार द्वितीय पुरुष का वर्णन करते हैं। सर्वप्रथम पूर्वसूत्रोक्त वर्णन ही यहाँ भूमिका के रूप में प्रस्तुत किया गया है। जैसे कि मनुष्यलोक की सभी दिशाओं में नाना कोटि के अनेक गुणयुक्त मानव रहते हैं, उनमें से कोई एक पूर्वोक्त राजगुणों से सम्पन्न राजा होता है, उसकी परिषद् के विविध प्रकार के सभासद होते हैं। उनमें से कोई सदस्य धर्म में श्रद्धालु होता है, जिसे तथाकथित श्रमण या ब्राह्मण अपने जाने-माने स्वाख्यात धर्म का उपदेश देते हैं, उसी पर श्रद्धा करने तथा उसे ही सत्य मानने का अनुरोध करते हैं।
___यह दूसरा पुरुष पाँचमहाभतिक कहलाता है। यह किस धर्म (मत या दर्शन) का उपदेश अपने अनुयायी भक्तों को देता है ? इसके उत्तर में शास्त्रकार उसके मत का निरूपण करते हैं-इह खलु पंचमहन्भया जैहि...."तणमायमवि अर्थात् इस समग्र जगत् में पंचमहाभूत ही सब कुछ हैं। सारा संसार पंचमहाभूतात्मक है। उनसे भिन्न और कुछ भी नहीं है। पाँच भूतों के द्वारा ही जगत् की उत्पत्ति, स्थिति और नाश होता है, संसार की समस्त क्रियाएँ इन पंचमहाभूतों द्वारा ही की जाती हैं। क्या सुकृत, क्या दुष्कृत, क्या कल्याण, क्या पाप आदि समस्त कियाएँ, यहाँ तक कि एक तिनके का हिलना भी इन पाँच महाभूतों से होता है । संसार का भला-बुरा, कल्याण-अकल्याण, सिद्धि-असिद्धि, नरक-नरक से भिन्न गति आदि सब इन पंच महाभूतों से ही होते हैं। इनसे अतिरिक्त अन्य कुछ भी नहीं है। इस भूत समुदाय को भिन्न-भिन्न नामों से जानना चाहिए। वे नाम क्रमशः इस प्रकार हैं(१) पृथ्वी, (२) जल, (३) तेज, (४) वायु और (५) आकाश । ये पाँच महाभूत हैं । ये सबसे बड़े होने के कारण महाभूत कहलाते हैं।
नास्तिकों का मन्तव्य है कि ये पृथ्वी आदि पंचमहाभूत किसी से उत्पन्न नहीं होते, किन्तु अनिर्मित हैं और अनिर्मापित हैं-यानी किसी के द्वारा बने और बनवाए नहीं हैं, अकृत हैं, ये कृत्रिम नहीं हैं, अनादि हैं, अनन्त (अविनाशी) हैं-अर्थात् ये पंचमहाभूत सदा विद्यमान रहते हैं, इनका कभी नाश नहीं होता । ये शाश्वत हैं । ये अपुरोहित हैं, अर्थात् इनको प्रेरित करने वाला कोई दूसरा नहीं है, ये स्वतन्त्र हैं, आना-जाना, उठनाबैठना, सोना-जागना आदि समस्त क्रियाएँ इनके द्वारा ही की जाती हैं, किसी दूसरे काल, ईश्वर या आत्मा आदि के द्वारा नहीं; क्योंकि काल, ईश्वर तथा आत्मा आदि
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