SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 91
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सूत्रकृतांग सूत्र अतः पूर्वसूत्रोक्त पुष्करिणी के उत्तम श्वेतकमल को निकालकर लाने की इच्छा से पुष्करिणी के घोर कीचड़ में फँसकर उससे अपना उद्धार करने में असमर्थ प्रथम पुरुष यही तज्जीव-तच्छरीरवादी है। इसे ही भगवान ने पुष्करिणा के श्वेतकमल को निकालकर लाने में असफल प्रथम पुरुष कहा है । इस कोटि के लोग संसाररूपी पुष्करिणी के विषय-भोगरूपी कीचड़ में फंसकर अपना सर्वस्व नष्ट कर डालते है । सारांश इस संसाररूपी पुष्करिणी में अगणित प्रकार के मनुष्य आते हैं, उनमें से कोई राजा भी होता है, वह श्रमण या माहन बनकर लोकायतिकों के चक्कर में पड़कर तज्जीव-तच्छरीरवादी बन जाता है, सांसारिक विषयभोगरूपी कीचड़ में फँस जाता है। स्त्री आदि ऐहिक सुख-साधनों का त्याग करके भी वे मोक्ष का सम्यक् मार्ग न प्राप्त कर सकने के कारण मोक्ष (कमल) नहीं पाते और बीच में ही विषय-भोग के कीचड़ में फंस जाते हैं। इस प्रकार दोनों ओर से भ्रष्ट होकर वे संसार-सागर में ही निमग्न होते हैं। उनकी दशा पुण्डरीक कमल को प्राप्त करने में विफल हुए उस प्रथम पुरुष को-सी हो जाती है, जो पूर्व दिशा से पुष्करिणी के तट पर आया था और श्वेतकमल को देखकर उसे पाने के लिए मुग्ध हो उठा था, लेकिन आगे शरीरात्मवाद जैसे उलटे मन्तव्य के कारण वह विषय-भोगरूपी कीचड़ में ही फंस गया था। मल पाठ अहावरे दोच्चे पुरिसजाए पंचमहन्भूइएत्ति आहिज्जइ, इह खलु पाईणं वा ६ संतेगइया मणुस्सा भवंति, अणुपुब्वेणं लोयं उववन्ना, तं जहाआरिया वेगे अणारिया वेगे एवं जाव दुरूवा वेगे। तेसि च णं महं एगे राया भवइ महया० एवं चेव णिरक्सेसं जाव सेणावइपुत्ता, तेसि च णं एगइए सड्ढी भवइ कामं तं समणा य माहणा य संपहारिसु गमणाए। तत्थ अन्नयरेणं धम्मेणं पन्नत्तारो वयं इमेणं धम्मेणं पन्नवइस्सामो से एवमायाणह भयंतारो! जहा मए एस धम्मे सुअक्खाए सुपन्नते भवइ । इह खलु पंचमहभूया, जेहि नो विज्जइ किरियाइ वा अकिरियाइ वा सुक्कडेति वा दुक्कडेति वा कल्लाणेति वा पावएति वा साहुइ वा असाहुइ वा सिद्धीइ वा असिद्धोइ वा णिरयेइ वा अणिरयेइ वा अवि अंतसो तणमायमवि । तं च पिहुद्दे सेणं पुढो भूतसमवायं जाणेज्जा, तं जहा---पुढवी एगे महन्भूए, आऊ दुच्चे महन्भूए, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003600
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1981
Total Pages498
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy