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________________ प्रथम अध्ययन : पुण्डरीक आगे शास्त्रकार नास्तिक मत की मिथ्या प्रतिज्ञाओं और वाणी - विलास का पर्दाफाश करने के लिए कहते हैं - ' एवं एगे पगब्भिया अंतरा कामभोगेसु विसन्ना ।' अर्थात् ये तज्जीव- तच्छरीरवादी लोकायतिक या चार्वाक नास्तिक शरीर से भिन्न आत्मा को न मानने की मान्यता पर धृष्टतापूर्वक डटे रहकर दीक्षा धारण करते हैं, कोई श्रमण बनते हैं, कोई माहन । और फिर वे लोकायतिक मत के ग्रन्थों को पढ़कर लोकायतिक बन जाते हैं, उसी मत को सत्य मानते हुए और उसी की प्ररूपणा करते हुए कहते हैं - 'हमारा ही धर्म सत्य है ।' फिर उसी मिथ्या मत पर श्रद्धा, प्रतीति और रुचि रखते हैं । भोगवादी राजा, धनाढ्य आदि उनके मत की प्ररूपणा सुनकर कहते हैं - 'हे श्रमण ! हे माहन ! आपने बहुत ही सुन्दर बात कही है ।' वास्तव में विषयानन्दी जीवों को इनका मत बहुत ही रुचिकर लगता है, क्योंकि इसमें पाप, परलोक और नरक का भय नहीं है । विषय-भोग की इच्छानुसार छूट है । संभोग से समाधि का आनन्द लूटने की वृत्ति विषय प्रेमियों की होती ही है। इसलिए वे इस मत को बड़े आदर के साथ ग्रहण करके कहते हैं- 'आपने हमें बहुत ही उत्तम और आनन्ददायक धर्म का उपदेश दिया है, वस्तुतः यही धर्म सत्य है; दूसरे सभी धर्म, जिनमें कि त्याग, तपस्या, सत्कर्म करने की कष्टदायक बातें हैं, वे धूर्तों, भांडों और निशाचरों ने अपने स्वार्थ के लिए रची हैं । आपने इस सत्य धर्म को सुनाकर हम पर बहुत बड़ा उपकार किया है । इसलिए हम आपको सब प्रकार की विषय-भोग की सामग्री अर्पण करते हैं ।' यों कहकर नास्तिक मतानुयायी उन कुगुरुओं को नाना प्रकार की विषय-भोगसामग्री भेंट करते हैं और वे तथाकथित साधुवेशी धर्मध्वजी दाम्भिक उस सामग्री को लेकर नाना प्रकार के विषय-भोगों में प्रवृत्त होते हैं । जिस समय वे तथाकथित श्रमण-माहन दीक्षा धारण करते हैं, उस समय बड़े गर्व के साथ प्रतिज्ञा लेते हैं - 'हम श्रमण, अनगार, घर-बार, धन-सम्पत्ति, पुत्र-पौत्रादि परिवार तथा पशुधन एवं जमीनजायदाद आदि सर्वस्व छोड़कर अकिंचन भिक्षाजीवी साधु बने हैं, हम दूसरे के द्वारा दिये गये भिक्षान पर ही जीयेंगे ।' परन्तु कुछ ही दिनों में वे इस प्रतिज्ञा को ताक में रख देते हैं और स्त्रीसंसर्गजनित काम भोगों, विषय-वासनाओं में मूच्छित, धनासक्त एवं रागद्वेष वशीभूत होकर नाना प्रकार के प्रपंच रचते रहते हैं । अपनी प्रतिज्ञा को भंग करके वे विषय- लम्पट बन जाते हैं । वे स्वयं भी बिगड़ते हैं और दूसरों को भी अपने कुमन्तव्यों का उपदेश देकर बिगाड़ देते हैं। इन नास्तिक साधुवेशियों का जीवन उभतो भ्रष्ट हो जाता है । न ये इस लोक के रहते हैं, न परलोक के । गृहस्थाश्रम से भी भ्रष्ट और साधु-जीवन से भी भ्रष्ट ! ऐसे लोग जब स्वयं अपना ही संसार-सागर से उद्धार नहीं कर सकते, तब फिर ये अपने उपदेशों से दूसरों का क्या खाक सुधार या उद्धार कर सकते हैं ? इनसे स्वपरकल्याण की आशा करना व्यर्थ है । Jain Education International For Private & Personal Use Only ४६ www.jainelibrary.org
SR No.003600
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1981
Total Pages498
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size23 MB
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