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________________ ४८ सूत्रकृतांग सूत्र चारा नहीं है । इस प्रकार शरीर से भिन्न ज्ञानरूप गुण के आश्रयभूत आत्मा की सिद्धि हो जाने पर भी नास्तिक आत्मा को शरीर से पृथक् नहीं मानते, यह उनका दुरा यदि आत्मा शरीर से भिन्न न हो तो किसी भी प्राणी का मरण नहीं हो सकता, क्योंकि शरीर तो मरने पर भी बना रहता है। फिर तो किसी की मृत्यु होनी ही नहीं चाहिए ! यद्यपि नास्तिक शरीर से भिन्न जीव (आत्मा) का खण्डन करने के लिए उसमें वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, अवयवों की पृथक् रूप में रचना आदि का अभाव बतलाते हैं और इस अभाव को बताकर आत्मा के सद्भाव का खण्डन करते हैं। मगर वे यह नहीं समझते हैं कि वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श और अवयव रचना आदि गुण तो मूर्त पदार्थ शरीर आदि) के होते हैं, अमूर्त के नहीं । आत्मा तो अमर्त है, तब भला उस में वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श तथा अवयव-रचना आदि मूर्त के गुण हो ही कैसे सकते हैं ? तथा इनके न होने से अमूर्त आत्मा के अस्तित्व का खण्डन कैसे किया जा सकता है ? हमारा नास्तिक से प्रश्न है कि वह अपने ज्ञान के अस्तित्व का अनुभव करता है या नहीं ? यदि नहीं करता है तो उसकी प्रवृत्ति नास्तिकवाद के समर्थन आदि में कैसे हो सकेगी ? यदि वह ज्ञान के अस्तित्व का अनुभव करता है तो उसमें वह कौन से वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श या अवयव-रचना की प्राप्ति या प्रतीति करता है ? यदि उस ज्ञान में वर्ण आदि की प्रतीति या उपलब्धि न होने पर भी नास्तिक उसका सद्भाव मानता है तो फिर आत्मा को न मानने का क्या कारण है ? __फिर नास्तिकों का यह कथन भी युक्तिसंगत नहीं है कि जो वस्तु जिससे भिन्न होती है, वह उससे अलग करके बताई जा सकती है, जैसे म्यान से तलवार अलग करके दिखाई जाती है, इत्यादि । यह कथन इसलिए असंगत है कि तलवार आदि तो मूर्त पदार्थ हैं, इसलिए वे दूसरी वस्तु से बाहर निकालकर दिखाये जा सकते हैं, मगर जो वस्तु अमूर्त होने के कारण दिखाई जाने योग्य नहीं है, उसे कोई कैसे दिखा सकता है ? यदि अमूर्त पदार्थ को भी प्रत्यक्ष दिखाया जा सकता हो तो नास्तिक अपने ज्ञान को दिमाग से बाहर निकालकर प्रत्यक्ष क्यों नहीं दिखा देता ? वह अपने ज्ञान को समझाने के लिए शब्द-प्रयोग क्यों करता है, ज्ञान को ही दिमाग से बाहर निकालकर दिखा दे ? जैसे हथेली में रखे हुए आँवले को बताने के लिए शब्द-प्रयोग नहीं किया जाता, अपितु दर्शक को सीधे ही वह (आँवला) दिखा दिया जाता है, तथैव नास्तिक अपने ज्ञान को भी दर्शक या श्रोता को सीधा ही क्यों नहीं दिखा देता ? यदि नास्तिक यह कहे कि अमूर्त होने के कारण ज्ञान नहीं दिखाया जा सकता, तब तो यही उत्तर आत्मा के न दिखाए जाने के सम्बन्ध में क्यों नहीं समझा जाए ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003600
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1981
Total Pages498
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size23 MB
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