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प्रथम अध्ययन : पुण्डरीक
वस्तु होने के कारण इन सबसे पृथक निकालकर दिखाई जा सकती हैं, क्योंकि भिन्नभिन्न वस्तुओं को अलग-अलग करके दिखलाना शक्य है, परन्तु जो वस्तु जिससे भिन्न नहीं है, बल्कि तत्स्वरूप है, उसको उससे अलग करके दिखलाना कथमपि शक्य नहीं है । यही कारण है कि शरीर से पृथक् करके जीव (आत्मा) को कोई नहीं दिखा सकता, क्योंकि वह (जीव ) शरीरस्वरूप ही है, उससे भिन्न नहीं है । यदि वह (जीव ) शरीरसे भिन्न होता तो म्यान से तलवार, मूँज से सलाई, हथेली से आँवला, दही से घृत, ईख से रस, तिल से तेल, एवं अरणि से आग की तरह शरीर से बाहर निकालकर car दिखाया जा सकता था, किन्तु वह शरीर से पृथक् करके बताने योग्य नहीं है । अतः वह शरीर से भिन्न नहीं है, यह सिद्धान्त ही युक्तियुक्त है ।
इस प्रकार नास्तिक लोग ( तज्जीव- तच्छरीरवादी) शरीर से भिन्न किसी आत्मा (जीव ) नामक पदार्थ को नहीं मानकर शरीर के नाश के साथ ही आत्मा का नाश मानते हैं । वे कहते हैं कि शरीर से भिन्न आत्मा को मानकर उसकी प्राप्ति के लिए नाना प्रकार के दुःखों को सहन करना, मूर्खता है । कोई क्रिया शुभ या अशुभ नहीं होती, न कोई पुण्य होता है न पाप, न उसके फलस्वरूप स्वर्ग या नरक हैं, धर्म और उसके फलरूप मोक्ष नहीं है, तथा सुख और दुःख भी नहीं है, पुण्य और पाप का फल ही नहीं है । अतएव नास्तिकों का कथन है, खूब खाओ, पीओ, मौज करो, शरीर नष्ट होते ही यहीं पर सब कुछ भस्म हो जाता है । वापिस कोई लौटकर नहीं आता, सब यहीं पड़ा रह जाता है । इसलिए नरक से डरना मूर्खता है । कर्ज लेकर भी घी पीना चाहिए । निःशंक होकर हिंसा आदि कुकृत्यों में रातदिन नास्तिक रचा-पचा रहता है । फिर नास्तिकों का सिद्धान्त यह है कि जिस किसी प्रकार का विषय भोग मिले. उसका उपभोग करो । विषयभोगों को प्राप्त करना ही बुद्धिमान का कर्तव्य है । उनके लिए नाना प्रकार के कुकर्म भी करने पड़ें तो करने में जरा भी मत हिचकचाओ ।
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किन्तु तज्जीव- तच्छरीरवादी नास्तिकों का यह मत असत्य है । प्रत्येक प्राणी अपने-अपने ज्ञान का अनुभव करता है । पशु-पक्षी आदि भी पहले सामान्य रूप से वस्तु को समझकर तब उसमें प्रवृत्ति करते हैं । अतः सभी चेतन प्राणी अपने-अपने ज्ञान का अनुभव करते हैं, यह मत निर्विवाद है, सर्वमान्य है । इस प्रकार प्रत्येक प्राणी द्वारा अनुभव किया जाने वाला वह ज्ञान गुण है, और अभूर्त है । उस अमूर्त ज्ञान गुण का आश्रय कोई गुणी अवश्य होना चाहिए। क्योंकि गुणी के बिना गुण का रहना असम्भव है | नास्तिकों का यह कथन ठीक नहीं है कि ज्ञानरूप गुण का आश्रय शरीर है क्योंकि शरीर मूर्त हैं और ज्ञान अमूर्त है । मूर्त का गुण मूर्त ही होता है, ज्ञानगुण मूर्त शरीर का गुण कदापि नहीं आश्रय अमूर्त आत्मा को माने सिवाय कोई
अमूर्त कदापि नहीं होता । इसलिए अमूर्त हो सकता । अतः अमूर्त ज्ञानरूप गुण का
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