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________________ प्रथम अध्ययन : पुण्डरीक ३६ हैं, (बहुजणबहुमाणपूइए) उसकी पूजा-प्रतिष्ठा अनेक जनों के द्वारा बहुमानपूर्वक की जाती है, (सव्वगुणसमिद्ध) वह समस्त गुणों से पूर्ण होता है. वह (खत्तिए) क्षत्रिय यानी पीड़ित प्राणियों का रक्षक होता है, (मुदिए) वह सदा प्रसन्न रहता है, (मुद्धाभिसित्ते) वह राजा राज्याभिषेक किया हुआ होता है, (माउपिउसुजाए) वह अपने माता और पिता का सुपुत्र होता है, दयप्पिए) उसे दया प्रिय होती है, (सीमंकरे सीमंधरे) वह जनता की सुव्यवस्था के लिए सीमा (मर्यादा) स्थापित-निर्धारित करता है तथा स्वयं उस मर्यादा का पालन भी करता है । (खेमंकरे खेमंधरे) वह जनता का कल्याण करता और स्वयं कल्याण को धारण करता है। (मणुस्सिदे) वह मनुष्यों में इन्द्र-प्रभु होता है, (जणवयपिया जणवयपुरोहिए) वह देशभर का पिता और देशभर का शान्तिरक्षक --- पुरोहित होता है, (सेउकरे केउकरे) वह राजा अपने राष्ट्र की सुख-शान्ति के लिए नदी, नहर, पुल आदि तथा भूमि आदि की सुव्यवस्था करता है, (नरपवरे पुरिसपवरे पुरिससीहे पुरिसआसीविसे पुरिसवरपोंडरीए पुरिसवरगंधहत्थी) वह समस्त मनुष्यों में श्रेष्ठ, पुरुषों में वरिष्ठ, पुरुषों में सिंहसम, पुरुषों में आशुविष सर्प, पुरुषों में श्रेष्ठ पुडरीक कमल के समान एवं पुरुषों में श्रेष्ठ मत्त गन्धहस्ती के समान है, (अड्ढे दित्ते वित्ते) वह अत्यन्त धनाढ्य, दीप्तिमान (तेजस्वी) व प्रसिद्ध पुरुष होता है । (विच्छिन्न विउलभवणसयणासणजाणवाहणाइण्णे) उसके पास बहुत विस्तीर्ण बड़े-बड़े विशाल विपुल भवन, पलंग, शय्या, आसन, यान (पालकी आदि) तथा वाहन-घोड़ा गाड़ी, तथा ताँगा और रथ आदि सवारियाँ होती हैं। हाथी, घोड़ा आदि वाहनों से वह परिपूर्ण रहता है । (बहुधणबहुजायरूवरयए) उसके खजाने बहुत-से धन, सोना-चाँदी से भरे होते हैं। (आओगपओगसंपउत्ते) उसके यहाँ प्रचुर द्रव्य की आय होती है और खर्च भी खब होता है । (विच्छड्डियपउरभत्तपाणे) उसके यहाँ बहुत से लोगों को भोजन-पानी पर्याप्त मात्रा में दिया जाता है। (बहुदासीदासगोमहिसगवेलगप्पभूए) उसके यहाँ बहुत से दासी-दास, गाय, बैल, भैंस, बकरी आदि पशु रहते हैं। (पडिपुण्णकोसकोट्ठागाराउहागारे) उसका खजाना द्रव्य से और कोठार अन्न से तथा आयुधागार शस्त्रास्त्रों से भरा रहता है । (बलवं) वह शक्तिशाली होता है, (दुब्बल्लपच्चामित्तं) शत्र ओं को को वह दुर्बल बनाये रखता है, (ओहयकंटयं निहयकंटयं मलियकंटयं उद्धियकंटयं अकंटयं, ओहयसत्त निहयसत मलियसत्तू उद्धियसत्तू निज्जियसत्तू पराजियसत्त) जिसके राज्य में चोर, व्यभिचारी, गुण्डे आदि उपद्रवी दुष्टों का नाश कर दिया गया है, उनको मार-पीटकर भगा दिया गया है, उन्हें कुचल दिया गया है, या उनका मान-मर्दन कर दिया गया है, उनके पैर उखाड़ दिये गये हैं, इसलिए उसका राज्य कंटक के समान चोर, डाकू, गुण्डे, व्यभिचारी आदि दुष्टों से रहित है। उसके राज्य पर आक्रमण करने वाले शत्रुओं का सफाया कर दिया गया है, उन्हें खदेड़ दिया गया Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003600
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1981
Total Pages498
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size23 MB
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