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________________ सूत्रकृतांग सूत्र है, उन्हें कुचल दिया गया है या उनका मान-मर्दन कर दिया गया है, अथवा उनके पैर उखाड़ दिये गये हैं, तमाम शत्र ओं को जीत लिया गया है, उन्हें हरा दिया गया है। (ववगयदुभिक्खमारिभय विप्पमुक्क) उसका राज्य दुभिक्ष और महामारी आदि के भय से विमुक्त है । (रायवण्णओ जहा उबवाइए) राजा का वर्णन यहाँ जैसे औपपातिक सूत्र में दिया गया है, वैसे समझ लेना चाहिए । (पसंतडिम्बडमरं) जिसमें स्वचक्रपरचक्र का भय शान्त हो गया है, ऐसे (रज्जं पसाहेमाणे विहरइ) राज्य का पालन या प्रशासन करता हुआ वह राजा विचरण करता है । (तस्स ण रो परिसा भवइ) उस राजा की एक सभा (परिषद) होती है। उसके सभासद ये होते हैं --- (उग्गा उग्गधुत्ता) उग्रकुल में उत्पन्न उन और उग्रपुत्र, (भोगा भोगयुत्ता) भोग (भोज) कुलोत्पन्न भोग और उनके पुत्र, (इक्खागाइ इक्लागाइपुत्ता) इक्ष्वाकुकुल में उत्पन्न तथा इक्ष्वाकुपुत्र, (नाया नायपुत्ता) ज्ञातकुल में उत्पन्न तथा ज्ञातपुत्र, (कोरबा कोरव्वयुत्ता) कुरुकुल में उत्पन्न तथा कुरुपुत्र (भट्टा मट्टपुत्ता) सुभटकुल में जन्मे हुए तथा सुभटों के पुत्र, (माहणा माहणपुत्ता) ब्राह्मण कुल में उत्पन्न तथा ब्राह्मणपुत्र (लेच्छइ लेच्छइपुत्ता) लिच्छवी नामक क्षत्रिय कुल में उत्पन्न तथा लिच्छवीपुत्र, (पसत्यारो पसत्यपुत्ता) प्रशास्ता यानी मन्त्रीगण तथा मन्त्रियों के पुत्र, (सेगावई सेणावइयुत्ता) सेनापति और सेनापतियों के पुत्र । (तेसि च णं एगतीए सड्ढी भवइ) इनमें से कोई एक धर्म में श्रद्धालु होता है (कामं तं समणा वा माहणा वा गमणाए संपहारिसु) श्रमण और ब्राह्मण उस धर्मश्रद्धालु पुरुष के पास धर्मश्रवणार्थ जाने का निश्चय करते हैं, (अन्नतरेणं धम्मेणं पन्नत्तारो) किसी एक धर्म की शिक्षा देने वाले वे श्रमण और ब्राह्मण यह निश्चय करते हैं कि (वयं इम्मेणं धम्मेणं पन्नवइस्सामो) हम इस श्रद्धालु पुरुष के समक्ष अपने इस (मनोनीत) धर्म की प्ररूपणा करेंगे, (भयंतारो मए जहा एस सुयक्खाए धम्मे सुपन्नते भवइ से एवमायाणह) वे उस धर्मश्रद्धालु पुरुष के पास जाकर कहते हैं-हे संसारभीरु धर्म-प्रेगी ! अथवा भय से जनता के रक्षक महाराज ! मैं जो भी आपको उत्तम धर्म शिक्षा दे रहा हूँ, उसे ही आप पूर्व-पुरुषों द्वारा सम्यक् प्रकार से कथित तथा सुप्रज्ञप्त-सत्य समझें। (तं जहा) वह धर्म इस प्रकार है--(उड्ढे पादतला अहे केसग्गमत्थया तिरियं तपरियंतं जीवे) पैरों के तलवों से ऊपर और मस्तक के केशों के अग्रभाग से नीचे तक तथा तिरछे चमड़ी तक जो शरीर है, वही जीव है। (एस कसिणे आया पज्जवे) यह शरीर ही जीव का समस्त पर्याय यानी अवस्था विशेष है। (एस जीवे जीवइ एस मए णो जीवइ) क्योंकि इस शरीर के जीने तक ही यह जीव जीता रहता है, शरीर के मर जाने पर यह नहीं जीता। (सरीरे धरमाणे धरइ विणलैंम्भि य णो धरइ एयंतं जीवियं भवइ) शरीर के स्थित रहते यह जीव स्थित रहता है और शरीर के नष्ट हो जाने पर यह नष्ट हो जाता है, इसलिए जब तक शरीर है, तभी तक यह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003600
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1981
Total Pages498
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size23 MB
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