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प्रथम अध्ययन : पुण्डरीक
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लता में परिणत होता है, जबकि इस साधु का प्रयास सफलता में परिणत होता है । इसलिए 'कारणगुणपूर्वको हि कार्यगुणो दृष्टः (कार्य के गुण का ज्ञान कारण के गुणों से होता देखा गया है) न्यायशास्त्र के इस नियमानुसार भिक्षु के कार्य - परिणाम की और जब नजर दौड़ाते हैं तो एक बात स्पष्ट प्रतीत हो जाती है कि भिक्षु को पुण्डरीक कमल प्राप्त करने में सफलता मिली है। इसलिये उसके द्वारा अपनाये हुए कारणों में भी विशेषता होनी चाहिए । अगर शास्त्र में पूर्वोक्त चारों पुरुषों की चेष्टाओं के लिए तथा इस साधु की चेष्टाओं के लिए प्रयुक्त समान वाक्यावली को देखें और उस पर सहसा गलत निर्णय कर बैठें तो ठीक नहीं होगा । इसलिए चाहे वाक्यावली समान हो, परन्तु दोनों जगह तात्पर्य में महान् अन्तर है । साधु के द्वारा की गई चेष्टाएँ ईर्ष्या, द्व ेष, घृणा या राग - मोह-स्वार्थ आदि से प्रेरित नहीं हैं । इसीलिए शास्त्रकार उक्त साधु के लिए भिक्खु लुहे तीरट्ठी खेयन्ने जाव गइपरक्कमण्णू विशेषणों का प्रयोग करते हैं । साधु सर्वप्रथम दृष्टिपात में उक्त श्वेतकमल को देखता है । वह उसकी बाह्य सुन्दरता के नहीं, उसके आन्तरिक सौन्दर्य के दर्शन करता है और अपनी शुद्ध निर्विकार आत्मा से उसकी तुलना करता है । तदनन्तर वह उन पूर्वोक्त चारों असफल व्यक्तियों पर नजर दौड़ाता है, उन पर वह तटस्थ दृष्टि से चिन्तन करता है और मन ही मन उनके प्रति दयाभाव से प्रेरित होता है । उसका हृदय बोल उठता है - बेचारे ये अभागे पुरुष न तो इस पुण्डरीक कमल को प्राप्त कर सके, और उधर बावड़ी के किनारे से भी बहुत दूर हट गये हैं । इनकी स्थिति अत्यन्त दयनीय हो गई है। ये न तो इस पार के रहे और न ही उस पार के रहे । अधबीच में ही इस बावड़ी के कीचड़ में फँसकर रह गये । इस प्रकार का समभावपूर्ण चिन्तन करने के बाद वह निःस्पृह साधु उन चारों पुरुषों की असफलता के कारणों पर गहराई से विचार करता है कि ये चारों भी मेरे ही समान पुरुष हैं, चारों ही शरीर से हृष्ट-पुष्ट एवं जवान हैं, फिर भी इस पुण्डरीक कमल को प्राप्त क्यों नहीं कर सके ? हो न हो, इस पुण्डरीक को प्राप्त करने में बहुत बड़ा रहस्य है । अत्यधिक प्रवृत्ति करने से या ज्यादा उखाड़ पछाड़ करने से या लोगों में अपने बड़प्पन की डींग हाँकने से अथवा दूसरों को कोसने या भला-बुरा कहने से यह पुण्डरीक कमल हाथ नहीं आता। इस पुण्डरीक कमल को प्राप्त करने के जो कारणउपाय हैं, उन्हें ये बेचारे नहीं जानते । इनकी दृष्टि स्थूल है, बहिर्मुखी है, अन्तर्मुखी नहीं है । इस श्वेतकमल को पाने के रहस्य का इन्हें ज्ञान नहीं । ये इस पुण्डरीक को प्राप्त करने में होने वाले खेद या श्रम को नहीं जानते । न ही इस कार्य को करने में कुशल हैं, न विचारक एवं विद्वान हैं । वह साधु इन चारों की हुई दुर्दशा से बहुत बड़ी प्रेरणा लेता है कि कहीं मैं तो ऐसा
अपने अन्तर् में झाँककर
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नहीं हूँ
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