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________________ व्याख्या उत्तम श्वेतकमल को पाने में सफल भिक्षु इससे पहले के चार सूत्रों में उन चार पुरुषों का शास्त्रकार ने वर्णन किया जो श्वेतकमल को पाने में बुरी तरह असफल एवं असमर्थ रहे । अब इस सूत्र में शास्त्रकार यह बताते हैं कि इसके पश्चात् एक पाँचवाँ पुरुष पुष्करिणी के तट पर आया जो भिक्षाजीवी साधु है, राग-द्व ेष से रहित या रूखे घड़े के समान कर्ममल के लेप से रहित है, वह संसार सागर से शीघ्र ही पार होने का अभिलाषी है तथा खेदज्ञ है --अर्थात् पृथ्वीकायादि षड्जीवनिकाय के जीवों के खेद - यानी पीड़ा को जानता है, पापकर्मों को नष्ट करने में कुशल, पापभीरु, विद्वान्, बालकों की-सी नादानी से रहित, विशेषज्ञ है, तथा सत्-असत् के विवेक से युक्त है, विचारपूर्वक कार्य करता है, सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारितरूप मोक्षमार्ग में स्थित है, मोक्षमार्ग का वेत्ता है, मार्ग की गति (चाल) और पराक्रम को जानता है और निरवद्य भिक्षा से जीवनयापन करने वाला भिक्षु है । वह किसी भी दिशा या विदिशा से आकर पुष्करिणी के समीप पहुँचा । उस पुष्करिणी के किनारे पर खड़े होकर एक द्रष्टा ज्ञाता की तरह वह उस पुष्करिणी को उस श्वेतकमल को तथा पुष्करिणी के कीचड़ में फँसे हुए उन चारों पुरुषों को देखता है । Jain Education International सूत्रकृतांग सूत्र यहाँ हम उस वीतराग भिक्षु के मानस का मनोवैज्ञानिक दृष्टि से विश्लेषण करते हैं । पूर्वोक्त चारों पुरुषों के देखने में और पाँचवें इस राग-द्वेषरहित निःस्पृह भिक्षु के देखने में जमीन-आसमान का अन्तर है । पूर्वोक्त चारों राग-द्वेष-मोह से आक्रान्त थे, स्वार्थ से सने हुए थे, जबकि निःस्पृह भिक्षु राग-द्वेष-मोह से काफी दूर है, इसे न किसी के प्रति लगाव है और न ही स्वार्थ है, न पक्षपात है और न ही अहंकार है । न किसी से घृणा है, न किसी से ईर्ष्या है । समभावी, कषाय और विषय विकारों से उपशान्त, निःस्पृह साधु को दूसरे की टीका-टिप्पणी या खरीखोटी आलोचना करने से भला क्या मतलब हो सकता है ? परन्तु इस भिक्षु की चेष्टाओं के सम्बन्ध में शास्त्रकार ने जो वाक्यावली प्रयुक्त की है, वह पूर्वोक्त चारों दर्शक पुरुषों के लगभग समान ही है । इसलिए सर्वसाधारण को यह भ्रम होना सम्भव है कि यह भिक्षु भी उन्हीं चारों पुरुषों की तरह दूसरों को कोसता या भला-बुरा कहता हुआ, अपने मुँह से अपनी प्रशंसा करने वाला, अपने मुँह मियाँ मिटठू बनने वाला प्राकृतजन-सा ही है । उन चारों में और इसमें क्या अन्तर है ? स्थूल दृष्टि से देखने -सोचने वालों को तो वे चारों और यह भिक्षु एक-से ही लगते हैं, सिर्फ उनके और इसके प्रयासों के नतीजे में अन्तर है । पहले चारों पुरुषों का प्रयास विफ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003600
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1981
Total Pages498
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size23 MB
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