SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 64
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रथम अध्ययन : पुण्डरीक tu अन्वयार्थ (अह) इसके पश्चात् (लूहे) राग-द्वषरहित, (तीरट्ठी) संसारसागर के तट पर जाने का इच्छुक (खेयन्ने) साधना में होने वाले खेद का ज्ञाता, (भिक्खू) भिक्षा मात्र से निर्वाह करने वाला साधु (अन्नतराओ दिसाओ वा अणुदिसाओ वा) किसी भी दिशा से या अनुदिशा (विदिशा) से (तं पुक्खरिणि आगम्म) उस पुष्करिणी के निकट आकर (तीसे पुक्खरिणीए तीरे ठिच्चा) उस पुष्करिणी के किनारे खड़ा होकर (तं महं एगं पउमवरपोंडरीयं जाव पडिरूवं पासइ) उस उत्तम प्रधान श्वेतकमल को जो अत्यन्त विशाल, पूर्वोक्त गुणों से युक्त एवं अनुपम सुन्दर है; देखता है। (तत्थ ते चत्तारि पुरिसजाए पासइ) और वहाँ वह उन चार पुरुषों को भी देखता है, (पहोणे तीरं) जो तीर को तो त्याग चुके हैं, लेकिन (पउमवरपोंडरीयं) उत्तम श्वेतकमल को नहीं पा सके हैं । (णो हव्वाए, णो पाराए) जो न इस पार के रहे हैं, न उस पार के। (अंतरा पुक्खरिणीए सेयंसि णिसन्ने) जो पुष्करिणी के बीच में ही कीचड़ में फंस गये हैं। (तए णं से भिक्खू एवं क्यासी) इसके पश्चात् उस भिक्षु ने उन पुरुषों के सम्बन्ध में इस प्रकार कहा-(अहो णं इमे पुरिसा अखेयन्ना जाव णो मगस्स गइपरक्कमण्णू ) अहो ! ये बेचारे चारों पुरुष खेदज्ञ नहीं हैं, तथा पूर्वोक्त गुणों से युक्त नहीं हैं, साथ ही ये मार्ग की गति एवं पराक्रम के भी जानकार नहीं हैं । (जं एए पुरिसा एवं मन्ने अम्हे एवं पउमवरपोंडरीयं उन्निक्खिस्सामो) इसीलिए ये चारों व्यक्ति यों समझते हैं कि इस श्रेष्ठ श्वेतकमल को निकालकर ले आएँगे, (णो य खलु एयं पउमवरपोंडरीयं, एवं उन्निक्खयव्वं जहा णं एए पुरिसा मन्ने) परन्तु यह उत्तम श्वेतकमल इस प्रकार नहीं निकाला जा सकता, जैसा कि ये लोग समझते हैं। (अहं लूहे तीरट्ठी खेयन्ने जाव मग्गस्स गइपरक्कमण्णू भिक्खू असि) मैं अलबत्ता राग-द्वेषरहित, संसार-सागर का किनारा पाने का अभिलाषी, खेदज्ञ एवं जिस मार्ग से चलकर जीव अपने इष्ट देश को प्राप्त करता है उसे जानने वाला, भिक्षाजीवी साधु हूँ। (अहमेयं पउमवरपोंडरीयं उन्निक्खिसामि त्ति कटटु) मैं इस श्वेतकमल को यहाँ से निकालू*गा, इसी अभिप्राय से यहाँ आया हूँ । (इइ वुच्चा से भिक्खू तं पुक्खरिणि णो अभिक्कमे) यों कहकर वह भिक्षु उस पुष्करिणी के भीतर प्रवेश नहीं करता है । (तीसे पुक्खरिणीए तीरे ठिच्चा सई कुज्जा) उस पुष्करिणी के किनारे खड़ा-खड़ा आवाज देता है-(भो पउमवरपोंडरीया उप्पयाहि उप्पयाहि खलु) अरे उत्तम श्वेतकमल ! वहाँ उठकर मेरे पास आ जाओ, मेरे पास आ जाओ । (अह से पउमवरपोंडरीए उप्पइए) इसके पश्चात् वह उत्तम श्वेतकमल उस पुष्करिणी से बाहर निकलकर या वहाँ से उठकर आ जाता है ॥ ६ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003600
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1981
Total Pages498
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy