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________________ प्रथम अध्ययन : पुण्डरीक है, और वह भी उसे देखकर मुग्ध हो जाता है । उसकी मनोरमता, उसकी सुरभि, उसकी चमक-दमक, उसकी रसप्रदता, और उसके मुलायम गुदगुदाते स्पर्श को देखकर एवं उसका आकर्षक, उन्नत एवं विशाल कद देखकर उसका भी मन उसे पाने के लिए ललचाता है । सम्भव है, पहले पुरुष की असफलता की बात उसके कानों में पड़ी हो, और उस पुष्करिणी की एवं उसमें उत्पन्न उक्त श्वेतकमल की बात भी उसने सुनी हो । और तभी से उसके मन में उस श्वेतकमल को आँखों से देखने की लालसा जाग उठी हो और परिचित लोगों से वह उस पुष्करिणी का रास्ता पूछकर वहाँ तक आ पहुँचा हो । आगे की कहानी तो शास्त्रकार ने मूल पाठ में अंकित की ही है । १६ और जब इस आगन्तुक दूसरे पुरुष ने पहले असफल पुरुष को पुष्करिणी के बीच में गहरे कीचड़ में फँसा देखा तभी उसके मन में उसका पौरुष हुँकार उठा, उसकी मर्दानगी एकदम जाग उठी, और वह अहंकार से गर्जता हुआ मन ही मन पहले पुरुष के प्रति कह उठा " अरे ! धिक्कार है तुझे ! इतनी सी बावड़ी में तू एक श्वेतकमल को भी प्राप्त न कर सका । वास्तव में तू अभी इस विषय में नादान बच्चा-सा है, न तो तुझमें इतनी कुशलता है, न तू अपने हिताहित को समझता है, और न ही तू इसे पाने में होने वाले श्रम के मूल्य को समझता है । न तुझे इस श्वेतकमल को पाने के उपायों ज्ञान है और न तू उस उपाय पर चल रहा है। इसे पाने के लिए कैसी गति और किस प्रकार का पराक्रम करना चाहिए, यह भी तू नहीं जानता है । तभी तो सिर्फ इस एक श्वेतकमल को पाने में लाचार हो गया; और बावड़ी के बीच में ही कीचड़ में फँस गया | अगर तुझे इसके कीचड़ का पता होता तो नहीं फँसता । मालूम होता है, तू इन सब बातों से अनभिज्ञ होकर सीधा ही इतना बड़ा साहस करने को चला आया है । पर देखना मर्दों की करामात ! मैं तेरी तरह कायर और दब्बू नहीं हूँ और न ही उपायों के बारे में अनभिज्ञ एवं नादान बालक हूँ । मैं जवाँ मर्द हूँ । मैं सब रास्ते जानता हूँ और मैं इस श्वेतकमल को पाने में अपनी सारी शक्ति लगा दूँगा, कोई भी कोर-कसर इसे पाने में नहीं छोड़ें गा । बस, मेरे घुसने की देर है, इस बावड़ी में ! घुसते ही श्वेतकमल को मैं उखाड़ लाऊँगा । मैंने तो जब से इसकी तारीफ सुनी है, तबसे इसे पाने का संकल्प करके ही यहाँ आया हूँ ।" यों शेखी बघा - रता हुआ, ज्यों ही दूसरा व्यक्ति उस बावड़ी के भीतर घुसा, दो-चार कदम आगे बढ़ाये होंगे कि वह भी पहले वाले व्यक्ति की तरह वहीं कीचड़ में फँस गया । उसके पैर वहीं ठप्प हो गये । न तो वह आगे बढ़ सका और न पीछे हट सका। पहले वाले पुरुष की तरह उसकी भी दुर्गति हुई । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003600
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1981
Total Pages498
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size23 MB
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