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सूत्रकृतांग सूत्र
श्वेतकमल को देखकर उसका मन ललचा आया होगा, तब उसने मन ही मन उस कमल की प्रशंसा की होगी-'वाह रे श्वेतकमल ! तू कितना विशाल और क्रमशः उन्नत है, इसीलिए बहुत ही ऊँचाई पर स्थित है, तूने मेरे मन-मस्तिष्क को अत्यन्त प्रभावित कर दिया है, सचमुच तू मेरे मन में बस गया है। तेरा रंग-रूप, तेरी सौरभ, तेरा रसास्वाद और मन को गुदगुदाने वाला तेरा कोमल-कोमल स्पर्श कितना लुभावना और मनभावना है ! सचमुच तू अत्यन्त मनोज्ञ और अद्वितीय सुन्दर है । तेरी चमक-दमक मुझे मोहित कर देती है। चाहे कुछ भी हो जाए, मैं अब तुझे प्राप्त करके ही दम लूगा ।'
शास्त्रकार प्रथम पुरुष के विषय में इतनी ही विशेषता बताते हैं कि वह पूर्व दिशा से आया था। बाकी सब बातों में चारों की गतिविधि और मनोवृत्ति प्रायः एक सरीखी बताई है। चारों की चेष्टाओं का अन्तिम परिणाम (नतीजा) भी समान ही बताया है कि वे चारों ही उस श्वेतकमल को पाने में असमर्थ रहे।
प्रथम पुरुष की श्वेतकमल को पाने की चेष्टा से एक बात अवश्य फलित होती है कि उसने ही सर्वप्रथम उस प्रसिद्ध पुष्करिणी की खोज की और उसने ही सबसे पहले उस विशाल श्वेतकमल को ढूढ़ निकाला। और उसके बाद भली-भाँति अपने नयनों से निहारकर उसे पाने के लिए लालायित हो उठा। मतलब यह है कि जनमन-नयन में केन्द्रित उस श्वेतकमल को पाने की पहल उस प्रथम पुरुष ने की थी। लोक-व्यवहार में भी उस व्यक्ति को अधिक महत्त्व दिया जाता है, जो किसी चीज का आविष्कार करता है, या उस वस्तु को प्राप्त करने के लिये प्रथम प्रयास करता है । इस सम्बन्ध में सचमुच उस पहले व्यक्ति का कदम सराहनीय था। उसका साहस भी प्रशंसनीय था। किन्तु उसके पश्चात् उसने बावड़ी में घुसकर उस श्वेतकमल को पाने में अपने आपको सफल, कुशल, विद्वान्, गतिविधिज्ञ एवं उपायज्ञ माना, यह उसका मूल्यांकन गलत था । वास्तव में वह इस योग्य बना नहीं था। वह उस श्वेतकमल पर मोहित जरूर हो गया था, किन्तु उसके पाने के ठोस और यथार्थ उपायों से वह अनभिज्ञ था। इसी कारण वह उसे पाने में बिलकुल असफल रहा। यद्यपि उसने दूसरे, तीसरे और चौथे पुरुष की तरह किसी अन्य को भला-बुरा नहीं कहा, न उसने किसी की कोई खरी-खोटी आलोचना की, तथापि उसने गर्वस्फीत होकर अपनी स्वयं की योग्यता का जो मूल्य आँका था, वह बिलकुल गलत था, जिसका नतीजा उसे भोगना पड़ा। उसे बहुत बड़ी हानि उठानी पड़ी, जिंदगी से भी हाथ धोना पड़ा।
उसके बाद दूसरा पुरुष उसी पुष्करिणी के पास आता है परन्तु वह पूर्व दिशा के बजाय दक्षिण दिशा से आता है और उस पुष्करिणी के तट पर खड़ा होकर चारों तरफ दृष्टि दौड़ाता है । सहसा उसकी नजर उसी पूर्वोक्त उत्तम श्वेतकमल पर पड़ती
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