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________________ सूत्रकृतांग सूत्र अणाढायमाणे जामेव दिसि पाउन्भूए तामेव दिसि पहारेत्थ गमणाए ) भगवान् श्री गौतम स्वामी को आदर नहीं देते हुए जिस दिशा आया था, उसी दिशा में जाने के लिए निश्चय किया । ४५० ( भगवं च णं उदाहु ) भगवान् गौतम ने उससे कहा - ( आउसंतो उदगा) आयुष्मन् उदक! (जे खलु तहाभूतस्स समणस्स वा माह्णस्स वा अंतिए एगमवि आरियं धम्मियं सुवणं सोच्चा निसम्म अप्पणो चेव सुहुमाए पडिलेहाए अणुत्तरं जोगखेमपयं लंभिए समाणे ) जो पुरुष श्रमण या माहन से एक भी आर्य धार्मिक सुवचन को सुनकर एवं समझकर उसके पश्चात् अपनी सूक्ष्मबुद्धि से यह विचार कर कि इन्होंने मुझे सर्वोत्तम कल्याणकारी योगक्ष ेम पद को प्राप्त कराया है, ( सो वि ताव तं आढाइ परिजाणेइ, वंदइ नमसइ सक्कारेइ सम्माणेइ जाव कल्लाणं मंगलं देवयं चेइयं पज्जुवासइ) अतः वह उन्हें आदर देता है, अपना उपकारी मानता है, उन्हें वन्दननमस्कार करता है, सत्कार-सम्मान करता है, उन्हें कल्याणरूप, मंगलरूप, देवरूप एवं सम्यग्ज्ञान (चैतन्य) रूप मानकर उनकी पर्युपासना करता है । (तए णं से उदए पेढालपुत्तं भगवं गोवमं एवं वयासी) इसके पश्चात् उदक पेढालपुत्र निर्ग्रन्थ ने भगवान् श्री गौतम स्वामी से यों कहा - ( भंते ! पुव्वि एएसि णं पदा अन्नाणयाए असवणयाए अबोहिए ) हे भदन्त ! मैंने इन पदों को कभी नहीं जाना था, न कभी सुना था, और न ही समझा था, (अणभिगमेणं अदिट्ठाणं असुयाणं अयाणं अविन्नायाणं अव्वोगडाणं अणिगूढाणं अविच्छिन्नाणं अणिसिट्ठाणं अणिबूढाणं अणुवहारिया ) मैंने इन्हें हृदयंगम नहीं किए, न इन्हें कभी देखे हैं, न कभी सुने हैं, सचमुच ये पद मेरे द्वारा अभी तक अज्ञात थे, स्मरण नहीं किये हुए थे, न ही गुरुमुख इन्हें प्राप्त किया था, ये पद मेरे लिए गूढ़ थे, मेरे द्वारा ये पद निःसंशय रूप से भी ज्ञात या निर्धारित न थे, इनका निर्वाह मैंने नहीं किया, इनका बुद्धि में निर्धारण मैंने नहीं किया, (एयमट्ठ णो सद्दहियं णो पत्तियं णो रोइयं ) इन पदों में निहित बात पर मैंने श्रद्धा नहीं की, न प्रतीति (विश्वास) की और न ही रुचि की, (एएस णं भंते पदाणं एहि जाणयाए सवणयाए बोहिए जाव उवहारणयाए ) भन्ते ! मैंने इन पदों को अभी जाना है, अभी सुना है, अभी समझा है, यहाँ तक कि अभी ही मैंने इनमें निहित बात का निश्चय किया है । इसलिए ( एयमट्ठ सहामि पत्तियामि रोएम एवमेव से जहेयं तुम्भे वयह) अतः अब इन पदों में निहित बात पर श्रद्धा करता हूँ, विश्वास करता हूँ, इन पर रुचि करता हूँ, यह बात वैसी ही है, जैसी आप कहते हैं । ( तए णं भगवं गोयमे उदयं पेढालपुत्त एवं वयासी) यह सुनने पश्चात् भगवान् गौतम उदकपेढालपुत्र से यों कहने लगे - ( अज्जो ! जहा णं अम्हे वयामो साहि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003600
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1981
Total Pages498
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size23 MB
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