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________________ सप्तम अध्ययन : नालन्दीय ४५१ अज्जो पत्तियाहि, अज्जो रोएहि ण) हे आर्य! जैसा हम कहते हैं, उस पर उसी प्रकार श्रद्धा करो, हे आर्य ! वैसी ही प्रतीति करो, आर्य ! वैसी ही इनमें रुचि रखो। (तए णं से उदए पेढालपुत्ते भगवं गोयम एव वयासी) उसके बाद उदक पेढालपुत्र ने भगवान् गौतम से इस प्रकार कहा-भन्ते! तुम्भं अंतिए चाउज्जामो धम्माओ पंचमहव्वइयं सपडिक्कमणं धम्म उवसंपज्जित्ता ण विहरित्तए इच्छामि) भन्ते ! मैं आपके पास चातुर्याम धर्म को छोड़कर प्रतिक्रमणसहित पंच महाव्रतों से युक्त धर्म का स्वीकार करके विचरना चाहता हूँ। (तए णं से भगवं गोयमे उदयं पेढालपुत्त गहाय जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ) इसके बाद भगवान् गौतम उदकपेढालपुत्र को लेकर जहाँ श्रमण भगवान महावीर विराजमान थे, वहाँ पहुँचे । (उवागच्छइत्ता तए णं उदए पुढालपुत्ते समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आधाहिणं पयाहिणं करेइ, तिक्खुत्तो आया हिणं पयाहिणं करित्ता वंदइ, नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी)- भगवान् महावीर के पास पहुँचकर पेढालपुत्र निर्ग्रन्थ ने श्रमण महावीर की तीन बार दाहिनी ओर से प्रदक्षिणा की, यह करके फिर वन्दना की, नमस्कार किया, वन्दन-नमस्कार के पश्चात् उदक ने भगवान् से इस प्रकार कहा--(भंते ! तुभ अंतिए चाउज्जामाओ धम्माओ पंचमहन्वइयं सप्पडिक्कमणं धम्म उवसंपजित्ता णं विहरित्तए इच्छामि) हे भगवन् ! मैं आपके समक्ष चातुर्याम धर्म का त्याग कर प्रतिक्रमण सहित पंच महाव्रत वाले धर्म का स्वीकार करके विचरण करना चाहता हूँ। (तए णं समणे भगवं महावीरे उदयं एवं बयासी) उसके पश्चात् उदक निम्रन्थ से श्रमण भगवान महावीर ने इस प्रकार कहा---(अहासुहं देवाणुप्पिया मा पडिबंधं करेहि) हे देवानुप्रिय उदक ! जैसा तुम्हें सुख हो वैसा करो, किन्तु शुभकार्य में रुकावट मत डालो, ढील न करो। (तए णं से उदए पेढालपुत्त समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए चाउज्जामाओ धम्माओ पंचमहत्वइयं सपिडक्कमण धम्म उवसंपजित्ता गं विहरइ) इसके पश्चात् वह उदकपेढालपुत्र निर्ग्रन्थ चातुर्याम धर्म को छोड़कर श्रमण भगवान् महावीर से प्रतिक्रमण सहित पंचमहाव्रतरूप धर्म का स्वीकार करके विचरण करने लगे। (त्ति बेमि) इस प्रकार मैं कहता हूँ। व्याख्या उदक निम्रन्थ का जीवन-परिवर्तन इस अध्ययन के प्रस्तुत अन्तिम सूत्र में शास्त्रकार ने उदक निर्ग्रन्थ के जीवन में उतार-चढ़ाव और अन्त में परिवर्तन की घटना अंकित की है। श्री गौतम स्वामी ने पूर्वसूत्रों में उदक निर्ग्रन्थ की विवादास्पद शंका का विविध दृष्टान्तों द्वारा समाधान किया था, अतः इस सूत्र में समुच्चय रूप में वस्तुस्वरूप बताने की दृष्टि से वे कहते हैं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003600
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1981
Total Pages498
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size23 MB
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