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________________ ४३८ सूत्रकृतांग सूत्र पुनः विरत रहता है, उनको दण्ड देना वर्जित करता है । इसलिए श्रावक के सहिंसा के प्रत्याख्यान को निर्विषयक कहना कथमपि न्यायसंगत नहीं है । सारांश इस सूत्र में श्री गौतम स्वामी ने उदकपेढालपुत्र निर्ग्रन्थ आदि को श्रावक के त्रस जीवों की हिंसा के प्रत्याख्यान को सविषय सिद्ध करने हेतु एक से एक बढ़कर 8 दृष्टान्त प्रस्तुत किये हैं । वास्तव में श्री गौतम स्वामी के इस विश्लेषणपूर्वक कथन के बाद किसी प्रकार की कोई गुंजाइश नहीं रहती कि कोई श्रावक के प्रत्याख्यान को निर्विषयक कहने का साहस कर सके । निष्कर्ष यह है कि संसार के समस्त त्रसजीव मरकर सभी स्थावर हो जाएँगे, यह शंका ही निराधार है । ऐसा कदापि सम्भव नहीं है । इसी बात को सिद्ध करने के लिए श्री गौतम स्वामी ने बताया है कि त्रसजीव मरकर नारकी, देवता, मनुष्य तथा तिर्यंच में पंचेन्द्रिय योनियों में पैदा होते हैं, जो स्थावर नहीं होते, किन्तु त्रस ही कहलाते हैं, जब श्रावक उन सब त्रसों को मारने का त्याग (प्रत्याख्यान) करता है, उनका पालन करता है, ऐसी स्थिति में त्रस - जीवघात का प्रत्याख्यान निर्विषय कैसे हो सकता है ? अतः सभी (९) मुद्दों के अन्त में, श्री गौतम गणधर ने कहा है, उक्त प्रत्याख्यान को निर्विषय या निराधार कहना अन्याय करना है, सत्य का गला घोंटना है । मूल पाठ तत्थ आरेण जे तसा पाणा जहि समणोवासगस्स आयाणसो आमरणंताए दंडे णिक्खित्ते, ते तओ आउं विप्पजहंति, विश्वजहित्ता तत्थ आरेणं चैव जाव थावरा पाणा जेहिं समणोवासगस्स अट्ठाए दंडे अणिक्खित्ते, अट्ठाए दंडे णिक्खित्ते तेसु पच्चायंति । तेहिं समणोवासगस्स अट्ठाए दंडे अणिक्खित्ते, अणट्ठाए दंडे णिक्खित्ते । ते पाणा वि बुच्चंति, ते तसा वि ते चिट्ठिया जाव अपि भेदे से णो णेयाउए भवइ । तत्थ जे आरेणं तसा पाणा जेहिं समणोवासगस्स आयाणसो आमरणंताए दंडे णिक्खित्ते, ते तओ आउं विप्पजहंति विप्पजहित्ता तत्थ परेणं जे तसा थावरा पाणा, जेहिं समणोवासगस्स आयाणसो आमरणंताए दंडे णिक्खिते ते पच्चायंति तेहिं समणोवासगस्म सुपच्चक्खायं भवइ, ते पाणा वि जाव अपि भेदे से णो णेयाउए भवइ । तत्थ जे आरेणं थावरा पाणा जेहिं समणोवासगस्स अट्ठाए दंडे अणिक्खित्ते, अणट्ठाए णिक्खित्ते, ते तओ आउं विप्पजहंति विप्पजहित्ता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003600
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1981
Total Pages498
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size23 MB
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