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________________ सप्तम अध्ययन : नालन्दीय ४३७ मर जाते हैं, और मरकर परलोक में किसी ऐसी गति में जन्म लेते हैं, जहाँ वे त्रस कहलाते हैं । वे महाकाय, दीर्घायु और बहुसंख्यक होते हैं। इसलिए उनकी अपेक्षा से श्रमणोपासक का त्रसहिंसाप्रत्याख्यान निविषयक नहीं है । उसे निविषय बताना न्यायोचित नहीं। (८) इसी तरह संसार में कुछ जीव सम-आयुष्क होते हैं। उनकी मृत्यु समय पर स्वयमेव होती है। वे मरकर परलोक में जाते हैं। वहाँ भी वे प्राणी त्रस ही कहलाते हैं । वे विशालकाय, समायु तथा बहुसंख्यक होते हैं। उनकी हिंसा का प्रत्याख्यान श्रमणोपासक व्रतग्रहणकाल ही करता है और जीवनपर्यन्त उसे निभाता है। ऐसी स्थिति में त्रसजीवहिंसा-विषयक प्रत्याख्यान को निविषय बताना न्यायसंगत नहीं है। (E) इसी प्रकार संसार में कई प्राणी अल्पायु होते हैं, वे जब तक जीते रहते हैं, तब तक त्रसप्रत्याख्यानी श्रावक उन्हें नहीं मारता । वे फिर मरकर जब पुनः त्रसयोनि में उत्पन्न होते हैं तब भी श्रावक अपने स्वीकृत प्रत्याख्यान के अनुसार उन्हें नहीं मारता । इसलिए श्रावक का प्रत्याख्यान निविषयक वहीं, सविषय है। साभाव का तर्क प्रस्तुत करके श्रावक के प्रत्याख्यान को निर्विषय बताना न्याय्य नहीं है । अन्त में श्री गौतम स्वामी इस सूत्र का उपसंहार करते हुए प्रकारान्तर से श्रावक के प्रत्याख्यान को सविषयक सिद्ध करते हैं। देखिए उदक निम्रन्थ ! कई श्रमणोपासक ऐसे भी होते हैं, जो गृहवास को छोड़कर अनगारधर्म में दीक्षित होने तथा अष्टमी, चतुर्दशी एवं पूर्णिमा आदि पर्वतिथियों में प्रतिपूर्ण पौषध व्रत को स्वीकार करने में अपनी असमर्थता प्रकट करते हैं। किन्तु सामायिक एवं देशावकाशिक दोनों व्रतों को स्वीकार तथा पालन कर सकते हैं। जिस श्रावक ने पहले सो योजन तक चारों दिशाओं की मर्यादा स्वीकार करके दिग्वत ग्रहण किया है, वह प्रतिदिन अपनी मर्यादा को कम करता हुआ जो योजन, गव्यूति (दो कोस), एक कोस, ग्राम या घर तक की मर्यादा करता है, उसे देशावकाशिकव्रत कहते हैं। इस व्रत को ग्रहण करने वाला श्रमणोपासक प्रतिदिन प्रातःकाल इस प्रकार से प्रत्याख्यान करता है- "मैं आज पूर्व, पश्चिम, उत्तर और दक्षिण दिशा में इतने कोस या इतनी दूर से अधिक नहीं जाऊँगा।" इस प्रकार वह श्रावक प्रतिदिन गमनागमन की मर्यादा निश्चित करता है । उक्त श्रमणोपासक ने गमनागमन की जितनी भूमि की मर्यादा (सीमा) निर्धारित की है, उस मर्यादा से बाहर रहने वाले प्राणियों को दण्ड देना, वह वजित करता है। वह श्रावक अपने मन में यह निश्चित करता है कि मैं ग्रहण की हुई मर्यादा से बाहर रहने वाले प्राणियों को दण्ड देने (हिंसा करने) का प्रत्याख्यान करता हूँ। इसलिए मैं उन प्राणियों का रक्षक एवं क्षेमकर हूँ। वे प्राणी जब तक जीवित रहते हैं, तब तक श्रावक उनकी रक्षा करता है और वे प्राणी मरकर अगले जन्म में यदि श्रावक की निश्चित की हुई मर्यादा से बाहर के प्रदेशों में जन्म लेते हैं, तो श्रावक उनकी हिंसा से Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003600
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1981
Total Pages498
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size23 MB
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