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________________ ४३६ सूत्रकृतांग सूत्र अविरत होते हैं। यानी स्थूल प्राणातिपात आदि का तो प्रत्याख्यान करते हैं लेकिन सूक्ष्म प्राणातिपात आदि का प्रत्याख्यान नहीं कर सकते । यों वे श्रमणोपासक व्रतग्रहण के समय से लेकर जीवनपर्यन्त त्रसजीवों की हिंसा के त्यागी होते हैं। इसलिए मृत्युसमय में अपने शरीर को शान्तिपूर्वक विसर्जन कर देते हैं। वे स्वोपाजित पुण्यों के फलस्वरूप अच्छी गति को प्राप्त होते हैं, जिस स्वर्गादि गति में वे जाते हैं, वहाँ वे त्रस प्राणी कहलाते हैं। और श्रावक उनकी हिंसा का त्याग करता है, इसलिए श्रावक के त्रसहिंसा व्रत (प्रत्याख्यान) को निविषय बताना किसी भी प्रकार से न्याययुक्त नहीं है। (६) इसी के सन्दर्भ में श्री गौतमस्वामी ने आगे कहा-इस जगत् में ऐसे भी मानव होते हैं, जो वन में कंदमूल फल आदि खाकर निवास करते हैं, झौंपड़ी बनाकर रहते हैं, कोई ग्राम में किसी के निमंत्रण पर भोजन करके अपना जीवन व्यतीत करते हैं। ये लोग अपने आपको मोक्ष का अराधक बतलाते हैं, परन्तु वास्तव में वे वैसे हैं नहीं । वे आरम्भ-जनित हिंसा का त्याग नहीं कर सकते हैं, वे पूरे संयमी नहीं हैं, जीवअजीव का इन्हें विवेक नहीं है। ये लोग सच्ची-झूठी बातों का उपदेश लोगों को दिया करते हैं, जैसे कि हम तो अवध्य हैं, परन्तु दूसरे प्राणी अवध्य नहीं हैं; हमें अपनी आज्ञा में नहीं चलाना चाहिए, दूसरे प्राणियों की आज्ञा में चलाना चाहिए, हमें गुलाम आदि बनाकर न रखना चाहिए, दूसरे प्राणियों को रखना चाहिए इत्यादि । इस प्रकार के ऊटपटांग उपदेशक लोग स्त्रीभोग तथा अन्य सांसारिक विषयों में भी आसक्त रहते हैं। इस प्रकार जिंदगी भर सांसारिक विषयभोग का उपभोग करके मृत्यु के समय मृत्यु प्राप्त करके अपनी अज्ञान तपस्या के प्रभाव से अधम आसुरी या किल्विषी देवयोनि में उत्पन्न होते हैं, अथवा प्राणियों के घात का उपदेश देने के कारण ये लोग नित्य अन्धकार से परिपूर्ण अतीव तामस एवं अत्यन्त यातनापूर्ण नरकों में जाते हैं । ये लोग देवता हों चाहे नारकी दोनों ही अवस्थाओं में त्रसत्व को नहीं छोडते । ये लोग स्वर्ग एवं नरक की आयु भोगकर फिर इस लोक में अन्धे, बहरे और गूगे होते हैं, या फिर बकरे आदि तिर्यंच योनियों में जन्म लेते हैं । दोनों ही अवस्थाओं में त्रस ही कहलाते हैं । यद्यपि द्रव्य से देवों और नारकों को मारना सम्भव नहीं है, तथापि भाव से इनको मारना सम्भव है । इसलिए त्रसप्राणी को न मारने का व्रत (प्रत्याख्यान) जो श्रमणोपासक ने ग्रहण किया है, तदनुसार श्रावकों के लिए ये पूर्वोक्त देव-नारकतिर्यंच-मनुष्यरूप त्रस प्राणी अवध्य है। अतः श्रावक के त्रसहिंसा के प्रत्याख्यान को निविषय बताना न्याययुक्त नहीं है। (७) इसके पश्चात् श्री गौतम स्वामी ने फिर उदक निर्ग्रन्थ से कहा- इस जगत् में ऐसे भी प्राणी होते हैं, जो लम्बी आयु वाले हैं जिनके विषय में श्रमणोपासक अपने व्रतग्रहण काल से लेकर मृत्युपर्यन्त हिंसा का प्रत्याख्यान करता है । वे प्राणी पहले ही Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003600
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1981
Total Pages498
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size23 MB
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