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सप्तम अध्ययन : नालन्दीय
४३५ मरने की आकांक्षा न करते हुए इस देह को छोड़ेंगे। इस प्रकार की प्रत्याख्यानप्रतिज्ञा करने के पश्चात् उन श्रावकों की मृत्यु जब इस रीति से होती है तो उस मृत्यु को उत्तम मृत्यु ही कहा जाएगा तथा यह भी निर्विवाद है कि वे मरकर अवश्य ही किसी उत्तमगति-देवलोक में उत्पन्न हुए हैं। यद्यपि वे श्रावक देव होने के कारण किसी मनुष्य के द्वारा मारे जाने योग्य तो नहीं हैं, तथापि वे त्रस तो कहलाते ही हैं । अतः जिस श्रमणोपासक ने त्रसजीवों के घात का प्रत्याख्यान किया है, उसके प्रत्याख्यान के विषय तो वे देव भी होते ही हैं । अतः त्रस जीवों के अभाव के कारण श्रावक के प्रत्याख्यान को निराधार बताना न्यायसंगत नहीं है। यह श्री गौतम स्वामी का आशय है।
(३) श्री गौतमस्वामी तीसरा दृष्टान्त प्रस्तुत करते हुए कहते हैं-इस जगत में बहुत से मनुष्य बड़ी-बड़ी इच्छाएँ रखते हैं, वे अत्यन्त आरम्भ करते हैं, महापरिग्रही एवं अधार्मिक होते हैं । यहाँ तक कि उन्हें कितना ही मनाया जाए, वे बड़ी मुश्किल से राजी होते हैं, इतना ही नहीं, वे जिंदगीभर तक हिंसा, झूठ, चोरी, मैथुन और परिग्रह, इन पांच महापापों से निवृत्त नहीं होते । ऐसे प्राणी मृत्यु का अवसर पाने पर मरते हैं,
और अपने पापकर्मों के फलस्वरूप नरकगति में जाते हैं। जहाँ वे चिरकाल तक निवास करते हैं । शरीर से भी वे विशाल होते हैं, वे भी त्रस प्राणी कहलाते हैं, वे संख्या में भी बहुत होते हैं। प्रत्याख्यानी श्रमणोपासक व्रतग्रहण करने के समय से लेकर मृत्युपर्यन्त उन प्राणियों की हिंसा का प्रत्याख्यान (त्याग) करते हैं । अतः आप लोग जो श्रावक के उक्त (त्रसवधविषयक) प्रत्याख्यान को निराधार बता रहे हैं, वह न्यायसंगत नहीं है।
(४) इसके अनन्तर श्री गौतमस्वामी अपने सिद्धान्त के समर्थन में कहते हैंइस जगत् में बहुत-से मनुष्य आरम्भ-परिग्रह से दूर रहते हैं, वे धर्माचरणशील और धर्म के पक्षपाती होते हैं। वे आजीवन समस्त प्राणातिपात से लेकर समस्त परिग्रहों से निवृत्त रहते हैं। ऐसे धार्मिक व्यक्ति मृत्यु समय उपस्थित होने पर सुख-शान्तिपूर्वक मृत्यु का वरण करते हैं और पूर्वोपार्जित पुण्यों के फलस्वरूप उत्तम गति प्राप्त करते हैं । वे प्राणी देव होते हैं या मनुष्य होते हैं । वे प्राणी एवं त्रस कहलाते हैं। उन (स) प्राणियों को श्रावक व्रतग्रहण करने के दिन से लेकर मृत्युपर्यन्त दण्ड नहीं देता, अर्थात् उनकी हिंसा नहीं करता। इसलिए श्रावक का त्रसहिंसाविषयक प्रत्याख्यान सविषय है, उसे निविषय कहना न्याययुक्त नहीं है।
(५) और भी लीजिए- संसार में ऐसे भी मनुष्य होते हैं, जिनकी इच्छा परिमित होती है, जिनका आरम्भ और परिग्रह भी अल्प होता है, वे धार्मिक और धर्मानुगामी होते हैं, धर्मपूर्वक आजीविका करते हैं, धर्म को ही अपना इष्ट समझते हैं। इस दृष्टि से वे प्राणातिपात से लेकर परिग्रह तक कुछ अंश में विरत और कुछ अंश में
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