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सूत्रकृतांग सूत्र
व्याख्या श्रमणोपासक का त्रसहिंसाप्रत्याख्यान निविषय नहीं
पूर्वसूत्रों में उदकपेढालपुत्र निर्ग्रन्थ द्वारा यह प्रश्न उठाया गया था कि त्रस जीव सभी स्थावर हो जाएंगे तो संसार में त्रसजीव रहेंगे ही नहीं, इस प्रकार श्रमणोपासक द्वारा किया गया त्रसजीवों की हिंसा का प्रत्याख्यान निविषय, निष्फल और निरर्थक हो जाएगा । यद्यपि श्री गौतम स्वामी ने इसका प्रतिवाद पिछले सूत्र में किया है तथापि श्री गौतमस्वामी दूसरे प्रकार से इस प्रश्न का विश्लेषणपूर्वक समाधान करते हुए कहते हैं-हे उदक ! यह संसार कभी त्रसजीवों से खाली नहीं होता, क्योंकि त्रसजीवों की उत्पत्ति संसार में अनेक प्रकार से होती है। दिग्दर्शन के रूप में कुछ बातें मैं आपके समक्ष प्रस्तुत करता हूँ। ..
(१) इस संसार में बहुत-से शान्त श्रावक होते हैं, जो साधु के पास आकर कहते हैं-"भंते ! हम गृहवास त्यागकर मुण्डित होकर अनगार धर्म में प्रवजित होने में समर्थ नहीं हैं, अत: हम अष्टमी, चतुर्दशी और पूर्णिमा आदि तिथियों में परिपूर्ण पौषधव्रत का आचरण करते हुए साधु की तरह दिनचर्या व्यतीत करके अपने को पवित्र करेंगे । तथैव स्थूल प्राणातिपात, स्थूल मृषावाद, स्थूल अदत्तादान, स्थूल मैथुन एवं स्थूल परिग्रह का प्रत्याख्यान दो करण-तीन योग से करेंगे, तथा इच्छा का परिमाण भी हम दो करण-तीन योग से करेंगे। तथा पौषधवत के दिन हम दो करण-तीन योग से करने-कराने, पकने-पकवाने से निवृत्ति करेंगे । अर्थात् हम उस दिन अपने परिवार को इन्कार कर देंगे कि हमारे लिए कुछ भी मत करो और न कराओ । इस प्रकार प्रतिज्ञा (प्रत्याख्यान) करके वे श्रमणोपासक बिना खाये-पीये और स्नान आदि किये, आसन से उतरकर तथा सम्यक् प्रकार से पौषध का पालन करके यदि मृत्यु को प्राप्त हो जाएँ, तो यही कहना होगा कि उनकी मृत्यु उत्तम ढंग से हुई। यानी इस प्रकार की उत्तम मृत्यु जिनकी हुई है, वे प्राणी देवलोक में उत्पन्न हुए हैं, यही मानना पड़ेगा। देवलोक में उत्पन्न वे प्राणी त्रस हैं, वे महाकाय भी हैं और चिरकाल तक उनकी देवलोक में स्थिति है । त्रसहिंसा का प्रत्याख्यानी श्रावक उन प्राणियों का घात नहीं करता, इसलिए उसका वह प्रत्याख्यान निविषय नहीं है, सविषय है। इसलिए श्रावकों के उक्त प्रत्याख्यान को त्रस जीवों के अभाव में निर्विषय बताना न्यायोचित नहीं है।
(२) दूसरा दृष्टान्त लीजिएइस संसार में ऐसे भी श्रावक होते हैं, जो गृहस्थ-अवस्था का त्याग करके अनगार वृत्ति स्वीकार करने में समर्थ नहीं होते, तथा वे अष्टमी, चतुर्दशी और पूर्णिमा आदि पर्वतिथियों में भी प्रतिपूर्ण पौषधव्रत का आचरण करने में अपनी असमर्थता प्रकट करते हैं लेकिन यह स्वीकार करते हैं कि हम अपनी जिंदगी के अन्तिम समय में अनशनपूर्वक संलेखना- संथा। धारण करके समस्त पापों का सर्वथा (त्रिकरण-त्रियोग से) प्रत्याख्यान करके चिरकाल तक जीने या शीघ्र
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