________________
४३०
सूत्रकृतांग सूत्र
न, उन्होंने अच्छी तरह से मृत्यु पाई है । (ते पाणा वि वुच्चंति जाव अयंपि भेदे से णो णेयाउए भवइ) वे प्राणी भी कहलाते हैं, त्रस भी कहलाते हैं, महाकाय और चिरिस्थितिक भी कहलाते हैं, इनकी (प्रस) हिंसा से श्रमणोपासक निवृत्त है, इसलिए श्रमणोपासक के व्रत को निविषय बताना न्यायसंगत नहीं है।
(भगवं च णं उदाह)आगे फिर भगवान् गौतम ने उदकपेढालपुत्र आदि निग्रन्थों से कहा--(संतेगइया मणुस्सा भवंति) इस संसार में कई मनुष्य ऐसे होते हैं, (महइच्छा महारंभा महापरिग्गहा अहम्मिया जाव दुप्पडियाणंदा) जो महान् इच्छा, महान् आरम्भ करने वाले, महापरिग्रही, अधार्मिक, यहाँ तक कि बड़ी कठिनाई से प्रसन्न किये जा सकते हैं। (जाव सदाओ परिग्गहाओ अप्पाडिविरिया) वे अधर्मानुसारी, अधर्मसेवी, अतिहिंसक, अधर्मनिष्ठ यावत् समस्त परिग्रहों से अनिवृत्त होते हैं। (जेहि समणोवासगस्स आयाणसो आमरणंताए दंडे निक्खित्त) श्रावक इन प्राणियों की हिंसा का त्याग व्रत ग्रहण करने से लेकर मृत्युपर्यन्त करता है। (ते तओ आउगं विप्पजहंति ततो भुज्जो सगमादाए दुग्गइगामिणो भवंति) किन्तु वे पूर्वोक्त (अधार्मिक आदि) पुरुष मृत्यु के समय अपनी आयु का त्याग कर देते हैं, और अपने पापकर्म को अपने साथ ले जाकर दुर्गति को प्राप्त करते हैं। (ते पाणा वि वुच्चंति, ते तसा वि वुच्चंति, त महाकाया ले चिरटिइया ले बहुयरगा) चे प्राणी भी कहलाते हैं, त्रस भी कहलाते हैं, वे महाकाय भी होते हैं और लम्बी आयु होने के कारण चिरस्थितिक भी होते हैं, तथा वे संख्या में भी बहुत होते हैं । (आयाणसो) उन प्राणियों को न मारने की प्रतिज्ञा श्रमणोपासक ने व्रतग्रहण से लेकर मरणपर्यन्त (आजीवन) की है, (इति से महयाओ णं जण्णं तुब्भे वयह, तं चेव अयंपि भेदे से णो णेयाउए भवइ) इसलिए इस दृष्टि से वह श्रमणोपासक प्राणियों की हिंसा (दण्ड) देने से विरत है । अतः आप लोग जो श्रावक के व्रत को निविषय बतला रहे हैं, आपका यह मन्तव्य न्यायसंगत नहीं है।
(भगवं च णं उदाहु) भगवान गौतम आगे कहने लगे--(संतेगइया मणुस्सा भवंति, तं जहा-अणारंभा अपरिग्गहा धम्मिया धम्माणुया जाव सव्वाओ परिग्गहा पडिविरया जावज्जीवाए) इस विश्व में ऐसे भी मनुष्य होते हैं, जो सर्वथा आरम्भपरिग्रह से रहित हैं, धर्म का आचरण करते हैं, दूसरे को धर्माचरण करने की अनुज्ञा देते हैं या धर्म का अनुसरण करते हैं, वे सब प्रकार के प्राणातिपात (जीवहिंसा) से लेकर सब परिग्रहों से जीवनपर्यन्त निवृत्त रहते हैं, (समणोवासगस्स जेहिं आयाणसो आमरणंताए दंडे णिक्खित्ते) उन प्राणियों को दण्ड देने का श्रमणोपासक ने व्रत ग्रहण करने के दिन से लेकर मरणपर्यन्त त्याग किया है। (तं तओ आउगं विप्पजहंति) वे पूर्वोक्त धार्मिक पुरुष काल (मृत्यु) का अवसर आने पर अपनी आयु का त्याग करते हैं, (भुज्जो सामादाए सगइगामिणो भवंति) फिर वे अपने पुण्यकर्म को साथ लेकर
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org