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________________ सप्तम अध्ययन : नालन्दीय ४२६ कालगतत्ति वत्तव्वं सिया) वे श्रमणोपासक बिना खाए, पीए, और बिना स्नान किए आसन से उतरकर सम्यक् प्रकार से पौषध का पालन करके यदि मृत्यु को प्राप्त हो जाएँ तो उनकी मृत्यु (काल) के विषय में क्या कहना होगा ? यही कहना होगा कि वे अच्छी रीति से कालधर्म को प्राप्त हुए, अर्थात् उनकी मृत्यु अच्छी हुई है, इसलिए उनकी गति भी अच्छी हुई है, यही कहा जाएगा। (ते पाणा वि वुच्चंति) वे प्राणधारण करने के कारण प्राणी भी कहलाते हैं, तथा (ते तसा वि बुच्चंति) त्रस कर्म का उदय होने से वे त्रस भी कहलाते हैं । (ते महाकाया) एक लाख योजन के शरीर की विक्रिया कर सकने के कारण वे महाकाय भी कहलाते हैं तथा (ते चिरटिइया) २२ सागरोपम की उकृष्ट स्थिति होने से वे चिरस्थितिक भी कहलाते हैं। (ते बहुतरगा पाणा जेहि समणोवासगस्स सुपच्चक्खायं भवइ) वे प्राणी संख्या में बहुत हैं, जिनके विषय में श्रमणोपासक का प्रत्याख्यान सुप्रत्याख्यान कहलाता है । (ते अप्पयरागा पाणा जेहि समणोवासगस्स अपच्चक्खायं भवइवे प्राणी थोड़े हैं, जिनके विषय में श्रमणोपासक का प्रत्याख्यान नहीं होता। (इति से महयाओ जण्णं तुभे वयह तं चेव जाव अयंपि भेदे से णो णेयाउए भवइ) इस प्रकार वह श्रावक महान् त्रसकाय की हिंसा से निवृत्त है, फिर भी आप उसके प्रत्याख्यान को निविषय कहते हैं, आपका यह मन्तव्य न्यायसंगत नहीं है । (भगवं च णं उदाहु) फिर भगवान गौतम स्वामी ने उदक पेढालपुत्र निर्ग्रन्थ से कहा -(संतेगइया समणोवासगा भवंति तेसि च णं एवं वृत्तपुव्वं भवइ) कई-कई श्रमणोपासक ऐसे भी होते हैं, जो इस प्रकार कहते हैं कि (वयं मुडा भवित्ता अगाराओ पव्वइत्तए णो खलु संचाएमो) हम मुडित होकर आगार (गृहस्थ) वास को छोड़कर अनगार धर्म में प्रवजित होने में समर्थ नहीं हैं । (चाउद्दसटपुष्णमासिणीसु जाव अणुपालेमाणा विहरित्तए) तथा चौदस, अष्टमी और पूर्णमासी, इन तिथियों में प्रतिपूर्ण पौषधव्रत का पालन करते हुए विचरण करने में भी हम समर्थ नहीं हैं। (वयं च णं अपच्छिममारणंतियं सलेहणा जूसण जूसिया, भत्तपाणं पडिआइक्खिया, जाव काल अणवक्खमाणा विहरिस्सामो) हम तो अन्तिम समय में मृत्यु का समय आने पर संल्लेखना-संथारा की आराधना करके आहार-पानी का त्याग करके दीर्घकाल तक जीने की इच्छा या शीघ्र मृत्यु को आकांक्षा न करते हुए विचरण करेंगे । (सव्वं पाणाइवायं पच्चक्खाइस्सामो जाव सव्वं परिग्गहं पच्चक्खाइस्सामो तिविहं तिविहेणं) उस समय हम तीनों करणों और तीनों योगों से समस्त प्राणातिपात, मृषावाद आदि से लेकर समस्त परिग्रह का त्याग करेंगे । (मा खलु ममट्ठाए किंचि वि जाव) और मेरे लिए कुछ करो मत, कराओ मत, इस प्रकार का प्रत्याख्यान करेंगे (आसंदो वेढियाओ पच्चोरुहिता एते तहाकालगया कि वत्तव्वं सिया सम्म काल गया इति वत्तव्वं सिया) इस प्रकार प्रतिज्ञा करके वे श्रावक अपने आसन से उतर कर जब कालधर्म (मृत्यु) को प्राप्त होते हैं, तब तक उनकी मृत्यु के विषय में क्या कहना होगा ? यही कहना होगा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003600
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1981
Total Pages498
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size23 MB
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