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________________ सप्तम अध्ययन : नालन्दीय ४३१ सद्गति (स्वर्गादि गति) में जाते हैं । ( ते पाणा वि वुच्चंति जाव णो णेयाउए भवइ) वे भी प्राणी कहलाते हैं, त्रस भी कहलाते हैं, महाकाय एवं स्वर्ग में चिरस्थितिक भी होते हैं (चिरकाल तक देवलोक में निवास करते हैं) उन्हें श्रमणोपासक दण्ड नहीं देता ( हिंसा नहीं करता) ऐसी स्थिति में आपका यह कथन न्यायसंगत नहीं है किस के अभाव के कारण श्रावक का व्रत निर्विषय है । ( भगवं च णं उदाहु ) भगवान् गौतमस्वामी ने अपने सिद्धान्त का प्रतिपादन क्रिया - ( संतेगइया मणुस्सा भवंति तं जहा - अप्पेच्छा, अप्पारंभा, अपरिग्गहा, धम्मिया, धम्माणुया जाब एगच्चाओ परिग्गहाओ अप्पडिविरया) इस जगत् में ऐसे भी मनुष्य होते हैं, जो अल्प इच्छा वाले, अल्प आरम्भ करने वाले, अल्प परिग्रही होते हैं, ऐसे लोग धार्मिक और धर्मानुसारी अथवा धर्माचरण की अनुज्ञा देने वाले होते हैं । वे धर्म से ही अपनी जीविका चलाते हैं, धर्माचरण ही उनका व्रत होता है, धर्म को ही अपना इष्ट मानते हैं, धर्म करके प्रसन्न होते हैं, वे प्राणातिपात से लेकर परिग्रह तक एक अंश में निवृत्त होते हैं, एक अंश में विरत नहीं होते यानी स्थूल प्राणातिपात आदि का प्रत्याख्यान करते हैं । ( जेहि समगोत्रा सगस्स आयाणसो आमर ताए दंडे निक्खित्त) वे श्रमणोपासक के व्रत ग्रहण करने के दिन से लेकर जीवनपर्यन्त (आमरणान्त) अमुक जीवों को दण्ड देने ( हिंसा) से निवृत्त होते हैं । (ते तओ आगं विप्पजहंति ) मृत्यु का अवसर आने पर अपनी आयु का त्याग करते हैं। ( ततो ज्जो सगमादाए सग्गइगामिणो भवंति ) वे फिर वहाँ से अपने पुण्यकर्मों को साथ में लेकर सद्गति को प्राप्त करते हैं । (ते पाणा वि वच्चति, जाव णो गेयाउए भवइ ) प्राणी भी कहलाते हैं, त्रस भी, वे महाकाय भी होते हैं । अतः श्रावक के प्रत्याख्यान at निर्विषयक बताना न्यासंगत नहीं है । ( भगवं च णं उदाहु ) भगवान् गौतम ने आगे कहा - ( संतेगइया मणुस्सा भवंति तं जहा आरणिया, आवसहिया, गामणिमंतिया कण्हुई रहस्सिया ) इस संसार में कई लोग ऐसे भी होते हैं, जो आरण्यक (वनवासी) होते हैं, आवसथिक (कुटी झोपड़ी आदि बनाकर रहते ) होते हैं, ग्राम में जाकर किसी के निमन्त्रण से भोजन करते हैं, कोई किसी गुप्त रहस्य के ज्ञाता होते हैं । ( जेहिं समणोवासगस्स आयाणसो आमरणंताए दंडे निक्खित्त भवइ ) श्रमणोपासक व्रत ग्रहण करने के समय से लेकर जीवनपर्यन्त उन्हें दण्ड देने ( हिंसा करने) का त्याग करता है । (ते णो बहुसंजया, जो बहुपडिविरया पाणभूयजीव तह) वे पूर्ण संयमी नहीं हैं, तथा वे समस्त सावद्य कर्मों से निवृत्त नहीं हैं, और प्राणी, भूत, जीव, सत्त्वों की हिंसा से भी विरत नहीं हैं, (ते अप्पणा सच्चामोसाइं एवं विपडिवेदेति) वे अपने मन से कल्पना करके सच्ची झूठी बात लोगों को इस प्रकार बताया करते हैं । ( अहं ण हंतव्वो, अन्ने हंतब्बा) जैसे मुझे नहीं मारना चाहिए, दूसरों को भले ही मारा जाए। (जाव कालमासे कालं किच्चा अन्नयराई आसुरियाई कव्विसियाई जाव उववत्तारो भवंति ) वे मृत्यु का अवसर आने पर मृत्यु Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003600
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1981
Total Pages498
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size23 MB
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