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सूत्रकृतांग सूत्र
नहीं करते । ऐसी स्थिति में कोई साधु चार, पाँच, छह या दस वर्ष तक या न्यूनाधिक समय तक विभिन्न देशों में विचरण करके क्या पुनः गृहस्थ बन जाते हैं या नहीं ?
निर्ग्रन्थ स्थविर-हाँ, ऐसे कुछ श्रमण पुन: गृहस्थ हो जाते हैं ।
गौतम स्वामी-निर्ग्रन्थो ! साधुत्व को छोड़कर पुनः गृहस्थ बने हुए भूतपूर्व श्रमणों को यदि वह (श्रमणों को न मारने की) प्रतिज्ञा का धारक मारता है, तो उसका वह प्रत्याख्यान भंग हो जाता है क्या ?
निर्ग्रन्थ बोले-नहीं जी ! जिसने गृहस्थ को मारने का प्रत्याख्यान नहीं किया, वह पुरुष यदि साधुत्व को छोड़कर गृहस्थ बने हुए पुरुष को मारता है तो उसका प्रत्याख्यान भंग नहीं होता । उसने तो साधु को ही न मारने का प्रत्याख्यान किया है, परन्तु वह पुरुष, जो कि अब साधु पर्याय में नहीं है, गृहस्थ पर्याय में है, अतएव उस गृहस्थ को मारने से साधु को न मारने की प्रतिज्ञा भंग नहीं होती।
श्री गौतम स्वामी ने कहा-निर्ग्रन्थ स्थविरो ! इसी प्रकार श्रमणोपासक ने त्रस जीवों की हिंसा का त्याग किया है, स्थावर जीवों की हिंसा का त्याग नहीं किया है । अतः स्थावर पर्याय में आए हुए भूतपूर्व त्रस को मारने पर भी श्रावक का उक्त प्रत्याख्यान भंग नहीं होता । क्योंकि वह जीव इस समय त्रस शरीर में नहीं है, किन्तु ग्थावर शरीर में है । अत: निन्य स्थविरो ! यही बात यथार्थ है । इसे ही आपको यथार्थ समझनी चाहिए।
फिर गौतम स्वामी ने इसी बात को स्पष्टतया समझाने हेतु दूसरा प्रश्न उठाया-निर्ग्रन्थो ! मैं आपसे पूछता हूँ कि कोई गृहस्थ या गृहस्थ का पुत्र तथाकथित उत्तम कुलों में जन्म लेकर क्या साधु के पास धर्मश्रवणार्थ आ सकते हैं ?
निर्ग्रन्थ स्थविर - जी हाँ, अवश्य आ सकते हैं । श्री गौतम स्वामी-क्या उन गृहपति आदि को धर्म का उपदेश देना चाहिए ? निर्ग्रन्थ-हाँ, साधुओं को उन्हें धर्मोपदेश देना चाहिए।
श्री गौतम स्वामी-क्या वे साधु से धर्मोपदेश सुन-समझकर यों कह सकते हैं कि यह निर्ग्रन्थ प्रवचन ही सत्य है, यही अनुपम (सर्वोत्तम) है, परिपूर्ण है, केवली द्वारा प्रज्ञप्त है, न्याययुक्त है, संशुद्ध है, माया आदि शल्यों को काटने वाला है, अविचल सुखरूप सिद्धि का मार्ग है, मुक्ति का मार्ग है, समस्त कर्मों से आत्मा को पृथक करने (निर्याण) का मार्ग है, निर्वाण-समस्त कर्मों के क्षय से उत्पन्न होने वाले परम सुख का मार्ग है, यही तथ्य है, असंदिग्ध है, समस्त दुःखों के नाश करने का मार्ग है। इस धर्म में स्थित जीव सिद्ध, बुद्ध, मुक्त होते हैं, परिनिर्वाण प्राप्त करते हैं, शारीरिक-मानसिक आदि सब प्रकार के दुःखों का अन्त करते हैं। अतः हम तीर्थंकर द्वारा उपदिष्ट इस धर्म के विधिविधान के अनुसार ही हम गमन करेंगे, यथाविधि विहार
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