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सप्तम अध्ययन : नालन्दीय
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करेंगे, बैठेंगे, ठहरेंगे, करवट बदलेंगे, यतनापूर्वक आहार लेंगे, बोलेंगे और उठेंगे । इस धर्म में उक्त विधि के अनुसार ही प्राणियों ( द्वीन्द्रिय आदि जीवों) भूतों (वनस्पतिकायिक जीवों), जीवों (पंचेन्द्रिय जीवों) एवं सत्त्वों ( पृथ्वीकाय आदि) की रक्षा के लिए संयम पालन करेंगे। क्या वे ऐसा कह सकते है ?
निर्ग्रन्थ एक स्वर से बोले - हाँ, वे ऐसा कह सकते हैं ।
गौतम स्वामी - क्या इस विचार के लोग साधु दीक्षा ले सकते हैं ? निर्ग्रन्थ- हाँ, ले सकते हैं, वे दीक्षा देने के योग्य हैं ।
गौतम स्वामी - क्या ऐसे विचार के लोग मुंडित हो सकते हैं ?
निर्ग्रन्थ- हाँ, वे अवश्य ही मुण्डित हो सकते हैं ।
गौतम स्वामी - क्या वे ग्रहण और आसेवन शिक्षा देने के योग्य हैं ? निर्ग्रन्थ-- हाँ, योग्य हैं ।
गौतम स्वामी - क्या वे समस्त प्राणियों यावत् सत्त्वों के प्रति दण्ड देने का त्याग कर सकते हैं ?
निर्ग्रन्थ- हाँ, वे त्याग कर सकते हैं ।
गौतम स्वामी ! क्या साधुदीक्षापर्याय में चार, पांच छह या दस साल तक या कमोवेश समय तक विभिन्न देशों में विचरण करके पुनः उनका गृहवास में आना सम्भव है ?
निर्ग्रन्थ -- हाँ, ऐसा सम्भव है ।
गौतम स्वामी ! क्या पुनः गृहस्थ हुए वे भूतपूर्व साधु समस्त प्राणियों की हिंसा के त्यागी हो सकते हैं ?
निर्ग्रन्थ-नहीं, ऐसा नहीं हो सकता । पुनः गृहस्थ होने पर वे समस्त प्राणियों की हिंसा के त्यागी नहीं हो सकते ।
श्री गौतम स्वामी इस बात को स्पष्ट करते हुए कहते हैं - निर्ग्रन्थो ! यह वही पुरुष है, जिसने साधु बनने से पूर्व समस्त प्राणियों की हिंसा का त्याग नहीं किया था, किन्तु वहीं पुरुष दीक्षा ग्रहण करने के बाद समस्त प्राणियों की हिंसा का त्याग कर लेता है, मगर जब वही पुरुष कर्मोदयवश पुनः गृहस्थ बन जाता है, तब वह इस योग्य नहीं रहता कि समस्त प्राणियों की हिंसा का त्याग कर सके । अर्थात् वह पहले गृहस्थावस्था में असंयमी था, फिर साधु बना तो संयमी हो गया, किन्तु हम इस समय साधुजीवन छोड़कर पुनः गृहस्थावस्था में आ जाने से असंयमी हो गया । जो असंयमी है, वह समस्त प्राणियों, भूतों, जीवों एवं सत्त्वों की हिंसा का त्यागी नहीं हो सकता । निर्ग्रन्थो ! इसी बात को सत्य समझो, और जिनवचनानुसार इसे ही सत्य समझना चाहिए ।
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