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________________ सप्तम अध्ययन : नालन्दीय विणिच्छियट्ठे अभिगहियठे) धर्म (निर्ग्रन्थ प्रवचनरूप या श्रुतचारित्ररूपधर्म) के वस्तुतत्त्व को उपलब्ध कर चुका था, उसने मोक्षमार्ग को स्वीकार कर लिया था। विद्वानों से पूछकर पदार्थों का ज्ञान प्राप्त कर लिया था, तथा प्रश्नोत्तर द्वारा तत्त्वों का भलीभाँति निश्चय कर लिया था, उसे अपने चित्त में जमा लिया था, उसका हृदय सम्यक्त्व से वासित था, (अद्विमिंजपेमाणुरागरत्ते) धर्म या निर्ग्रन्थ प्रवचन के प्रति अनुराग उसकी हड्डियों और नसों (रग-रग) में भरा हुआ था। (अयमाउसो निग्गंथे पावयणे अयं अठे, अयं परमठे सेसे अणिठे) उससे धर्म या निर्ग्रन्थ प्रवचन के सम्बन्ध में जब कोई पूछता था तो वह यह कहता था कि हे आयुष्मन् ! यह निर्ग्रन्थ प्रवचन ही मेरे जीवन का सर्वस्व है, यही सत्य है, यही परमार्थ है, इसके अतिरिक्त शेष सभी दर्शन या धर्म अनर्थरूप हैं। (उस्सियफलिहे अप्पावयदुवारे) उसका निर्मल यश चारों ओर फैला हुआ था, तथा उसके घर के द्वार सब याचकों के लिए सदैव खुले रहते थे, (चियत्तंतेउरप्पवेसे) राजाओं के अन्तःपुर में भी उसका प्रवेश निषिद्ध नहीं था, इतना वह शील और अर्थ के बारे में विश्वस्त था। (चाउद्दसट्ठमुद्दिठ्ठपुण्णमासिणीसु पडिपुन्न पोसहं सम्म अणुपालेमाणे) वह चतुर्दशी, अष्टमी, अमावस्या और पूर्णिमा के दिन प्रतिपूर्ण पौषध का सम्यक् प्रकार से पालन करता था। (समणे निग्गंथे तहाविहेणं एसणिज्जेणं असणपाणखाइमसाइमेणं पडिलाभेमाणे) वह श्रमणों निर्ग्रन्थों का तथाविधि शास्त्रोक्त ४२ दोषों से रहित निर्दोष एषणीय अशन, पान, खाद्य एवं स्वाद्यरूप चतुर्विध आहार आदि का दान (प्रतिलाभित) करता हुआ (बहूहिंसीलव्वयगुणविरमणपच्चक्खाणपोसहोववासेहि अप्पाणं भावेमाणे एवं च णं विहरइ) तथा अनेकों शील (शिक्षाव्रत) एवं गुणव्रत तथा हिंसा आदि से विरमणरूप अणुव्रत, त्याग, नियम, प्रत्याख्यान एवं प्रोषधोपवास आदि से अपनी आत्मा को भावित (पवित्र) करता हुआ धर्माचरण में रत रहता था। व्याख्या लेप श्रमणोपासक की विशेषताएं पूर्वोक्त नालंदा नामक उपनगर या पाड़े (ग्राम) में एक बहुत ही धनाढ्य लेप नामक गृहस्थ निवास करता था। वह श्रमणों की उपासना करने वाला, श्रमणों के उपदेश का पक्का श्रोता (श्रावक) एवं उनके धर्म का दृढ़ अनुरागी था, उन्हें आहारादि देता था, अतः उनका उपासक था। वह जीव-अजीव, पुण्य-पाप, आश्रवसंवर, निर्जरा, बन्ध मोक्ष का ज्ञाता था। वह सम्यग्ज्ञानी था। उस अकेले को देव और असुर भी धर्म से विचलित नहीं कर सकते थे। निर्ग्रन्थ प्रवचन में उसे तनिक भी शंका नहीं थी, वह दूसरे दर्शनों की कभी आकांक्षा नहीं करता था, न उसे धर्माचरण के फल में सन्देह था। उसका यह दृढ़ विश्वास था कि वही सत्य है, निःशंक है, जो वीतराग जिनेन्द्रों द्वारा उपदिष्ट है । अन्य दर्शनों के प्रति उसे जरा भी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003600
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1981
Total Pages498
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size23 MB
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