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________________ ३६० सूत्रकृतांग सूत्र संस्कृत छाया तस्यां खलु नालन्दायां बाह्यायां लेपोनाम गाथापतिरासीत् । आढ्यो, दीप्तो, वित्तो, विस्तीर्ण विपुलभवनशयनासनयानवाहनाकीर्णः बहुधनबहुजातरूपरजतः, आयोग-प्रयोग-सम्प्रयुक्तः, विदित (वितरित) प्रचरभक्तपानो, बहुदासीदासगोमहिषगवेलकप्रभूत: बहुजनस्य अपरिभूतश्चाप्यासीत् । स खलु लेपोनाम गाथापतिः श्रमणोपासकश्चाप्यासीत् अभिगतजीवाजीवो यावद् विहरति । निर्ग्रन्थे प्रवचने निःशंकित:, निष्कांक्षितः, निर्विचिकित्सः, लब्धार्थः, गृहीतार्थः, पृष्टार्थः, विनिश्चितार्थः, अभिगृहीतार्थः अस्थिमज्जाप्रेमाऽनुरागरक्तः, इदमायुष्मन् ! नैर्ग्रन्थं प्रवचनम् अयमर्थः अयं परमार्थः, शेषोऽनर्थः । उच्छ्तिफलकः, अप्रावृतद्वारः अत्यक्तान्तःपुरप्रवेशः, चतुर्दश्यष्टम्यद्दिष्टपूर्णिमासु प्रतिपूर्ण पौषधं सम्यगनुपालयन् श्रमणान् निग्रन्थान् तथाविधेन एषणीयेन अशन-पान-खाद्यं-स्वाद्येन प्रतिलाभयन बहुभिशीलवतगुणविरमणप्रत्याख्यानपौषधोपवासै रात्मानं भावयन् एवं च खलु विहरति ।सू०६९। अन्वयार्थ (तत्थ णं बाहिरियाए नालंदाए लेवे नाम गाहावाई होत्था) उस राजगृह के नालंदा नामक बाह्यप्रदेश में लेप नामक गाथापति (गृहपति) रहता था। (अड्ढे वित्त वित्ते) वह बड़ा ही धनिक, तेजस्वी और प्रसिद्ध व्यक्ति था। (विच्छिण्णविपुलभवण-सयणासणजाणवाहणाइण्णे) वह बड़े-बड़े विशाल अनेकों भवनों, शयन (शय्या), आसन, यानों (रथ, पालकी आदि) एवं वाहनों (घोड़े आदि सवारियों) आदि सामग्री से परिपूर्ण था । (बहुधणबहुजायरूवरजते) उसके पास प्रचुर सम्पत्ति, सोना-चाँदी थी। (आओगपओगसंपउत्ते) वह धनोपार्जन के उपायों का ज्ञाता तथा उनके प्रयोग में बहुत कुशल था। (बिछिड्डियपउरभत्तपाणे) उसके यहाँ से प्रचुर आहार-पानी लोगों को बाँटा (वितरित किया) जाता था । (बहुदासीदासगोमहिसगवेलगप्पभूए) वह बहुत-से दासी-दासों, गायों-भैंसों और भेड़ों का मालिक था, (बहुजणस्स अपरिभूए या वि होत्था) तथा वह अनेक लोगों से भी पराभव नहीं पाता (दबता नहीं) था, वह दबंग व्यक्ति था। (से णं लेवे नाम गाहावई समणोवासए यावि होत्था) वह लेप नामक गाथापति श्रमणोपासक भी था। (अभिगय जीवाजीवे जाव विहरइ) वह जीव एवं अजीव का ज्ञाता, यावत् शब्द से उपासकदशांग सूत्र में वर्णित श्रमणोपासक की विशेषताओं का वर्णन समझ लेना चाहिए। (निग्गंथे पावयणे निस्संफिए निक्कंखिए निवितिगिच्छे) वह लेप श्रमणोपासक निर्ग्रन्थ प्रवचन में शंकारहित था; अन्य दर्शनों की आकांक्षा या धर्माचरण की फलाकांक्षा से दूर था, उसे धर्माचरण के फल में कोई सन्देह न था, अथवा वह गुणी पुरुषों की निन्दा से दूर रहता था। (लद्धठे गहियट्ठ पुच्छियठे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003600
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1981
Total Pages498
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size23 MB
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