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________________ सप्तम अध्ययन : नालन्दीय अभिव्यक्त हो जाता है कि जिस समय भगवान् महावीर स्वामी और उनके पट्टशिष्य गणधर गौतम स्वामी विद्यमान थे, उस समय यह राजगृह नगर बहुत विस्तृत, अनेक गगनचुम्बी भवनों से सुशोभित तथा धनधान्य आदि से परिपूर्ण, स्वचक्र-परचक्र के उपद्रव के भय से रहित था। इसका विशेष वर्णन औपपातिक सूत्र से जान लेना चाहिए । यहाँ तक कि वह नगर इतना सुन्दर था कि दर्शकों को उसका रूप नयानया ही दृष्टिगोचर होता था। उसी राजगृह नगर की बाह्य भूमि में ईशानकोण में नालन्दा नाम की एक उपनगरी थी, अथवा राजगृह का ही एक पाड़ा या मोहल्ला था, वह । उसमें सैकड़ों भवन पंक्तिबद्ध सुशोभित थे। वह भी अत्यन्त प्रासादीय, दर्शनीय, अभिरूप एवं प्रति रूप था, एक सुन्दर लघुग्राम जैसी वह बसी हुई थी । वास्तव में नालन्दा को ही श्रमण शिरोमणि भ० महावीर के चौदह वर्षावास कराने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था तथा वहीं इस अध्ययन में वर्णित गौतम-पेढालपुत्रउदक संवाद हुआ था। इसीलिए शास्त्रकार ने नालन्दा की विशेषताओं तथा उसकी स्थिति का निरूपण किया है। सारांश प्रस्तुत सूत्र में राजगृह और तदन्तर्गत ईशानकोण में स्थित एक विशिष्ट भूभाग--नालन्दा का सजीव वर्णन है। वह नालन्दा भगवान् महावीर तथा तथागत बुद्ध के समय में अतीव समृद्ध था। वह भगवान् महावीर की साधनाभूमि भी रही। वहीं गौतम गणधर एवं उदअपेढालपुत्र के बीच अध्ययन में निरूपति धर्म-चर्चा हुई थी। मूल पाठ तत्थ णं नालंदाए बाहिरियाए लेवे नाम गाहावई होत्था, अड्ढे दित्ते वित्ते विच्छिण्णविपुलभवणसयणासणजाणवाहणाइण्णे बहुधणबहुजायरूवरजते आओगपओगसंपउत्ते विछड्डियपउरभत्तपाणे बहुदासीदासगोमहिसगवेलगप्पभूए बहुजणस्स अपरिभूए यावि होत्था। से णं लेवे नाम गाहावई समणोवासए या वि होत्था, अभिगयजीवाजीवे जाव विहरइ। निग्गंथे पावयणे निस्संकिए निक्कंखिए निवितिगिच्छे, लद्धठे गहियठे पुच्छियठे विणिच्छियढे अभिगहियठे अछिमिजापेमाणुरागरत्ते, अयमाउसो ! निग्गंथे पावयणे अयं अट्ठे अयं परमर्दो सेसे अणठे, उस्सियफलिहे अप्पावयदुवारे चियत्तंतेउरप्पवेसे चाउद्दसट्ठमुद्दिठ्ठपुण्णमासिणीसु पडिपुन्नं पोसहं सम्म अणुपालेमाणे समणे निग्गंथे तहाविहेणं एसणिज्जेणं असण-पाण-खाइमसाइमेणं पडिलाभेमाणे बहूहि सीलव्वयगुणविरमणपच्चक्खाणपोसहोववासेहि अप्पाणं भावेमाणे एवं च णं विहरइ ॥ सू० ६६ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003600
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1981
Total Pages498
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size23 MB
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