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________________ ३८५ सूत्रकृतांग सूत्र नाम नयरे होत्था) राजगृह नामक नगर था। (ऋद्धस्थिमियसमिद्ध वण्णओ जाव पडिरूवे) वह (राजगृह नगर) ऋद्धि-धन-सम्पत्ति से परिपूर्ण, स्तमित-स्वचक्रपरचक्र के भय से रहित, स्थिर-शासन से युक्त तथा समृद्धि-धान्य, गृह तथा अन्य सामग्री से युक्त था, यावत् वह बहुत ही सुन्दर नगर था । इसका समस्त वर्णन औपपातिक सूत्र से जान लेना चाहिए। (तस्स णं रायगिहस्स नयरस्स बाहिरिया उत्तर पुरच्छिमे दिसिभाए एत्थ णं नालन्दा नाम बाहिरिया होत्था) उस राजगृह नगर की बाह्य भूमि में ईशानकोण (उत्तर-पूर्व दिशा भाग) में नालन्दा नाम की एक बाहिरिका यानी पाड़ा या उपनगरी अथवा लघु ग्राम थी (अणेग भवणसयसन्नि विट्ठा जाव पडिरूवा) वह अनेकसैकड़ों भवनों से सुशोभित थी, यावत् वह प्रासादीय, दर्शनीय, अभिरूप एवं प्रतिरूप थी, यानी वह अतीव सुन्दर थी। व्याख्या नालन्दा को विशेषाताएँ नालन्दा एक उपनगरी या लघुग्रामटिका अथवा पाड़ा या मौहल्ला थी, जो राजगृह से बाहर ईशानकोण में स्थित थी। इसलिए शास्त्रकार सर्वप्रथम राजगृह नगर का वर्णन करते हैं-"तेण कालेणं....."नयरे होत्था ।" प्रश्न होता है कि इस सूत्र में राजगृह का जैसा वर्णन किया गया है, वैसा इस समय तो वह है नहीं, फिर इसकी इतनी विशेषताएँ क्यों बताई गई ? इसके समाधानार्थ शास्त्रकार ने स्वयं ही मूल में 'तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहं नामं नयरे होत्था' इस प्रकार भूतकाल का प्रयोग किया है । आशय यह है कि इस सूत्र में राजगृह नगर का जैसा वर्णन किया गया है, वैसा वह किसी समय में अवश्य था । इसी बात को द्योतित करने के लिए ही मूल में 'तेणं कालेणं तेणं समएणं' कहा है । अर्थात् जिस समय राजगृह नगर इस सूत्र में वणित विशेषणों से युक्त था, उस काल और उस समय के अनुसार ही यहाँ वर्णन किया गया है। इसलिए इस वर्णन को मिथ्या नहीं समझना चाहिए। - जैनतत्त्वज्ञान की दृष्टि से सोचें तो सभी पदार्थ क्षण-क्षण परिवर्तनशील हैं। इस नियम के अनुसार जिस प्रकार की विशेषताओं वाला राजगृह नगर भगवान् महावीर की विद्यमानता के समय था, वैसा सुधर्मा स्वामी के इस उपदेश (सूत्ररचनानुसार वर्णन) के समय नहीं रहा अर्थात् भगवान् महावीर के समय उसकी जो वर्णगन्ध-रस-स्पर्श की पर्यायें थीं, वह सुधर्मा स्वामी के इस कथन के समय नहीं रहीं। जब वे पर्याय नहीं रहीं तो उन पर्यायों से विशिष्ट राजगृह भी नहीं रहा। इस प्रकार इसके स्वरूप में विरूपता या परिवर्तन आ जाने के कारण शास्त्रकार ने जो भूतकालीन प्रयोग किया है, वह उपयुक्त है और वैसा सम्भव भी है। किस काल और किस समय में राजगृह नगर वैसा था? यह तो इसी अध्ययन में आगे वणित श्री गौतम स्वामी के एवं श्री पेढालपुत्र उदक के परस्पर संवाद से ही Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003600
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1981
Total Pages498
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size23 MB
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