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________________ सप्तम अध्ययन : नालन्दीय ३८७ पासक का वर्णन है। लेप ने नालन्दा के ईशानकोण में शेषद्रव्या नामक एक विशाल उदकशाला (प्याऊ) बनवाई थी। लेप ने इस उदकशाला का निर्माण अपने आवासस्थान बनवाने के बाद शेष रहे हुए द्रव्य से कराया था । इस उदकशाला के पास ही हस्तियाम नामक एक वनखण्ड था, जो बहुत हरा-भरा होने के कारण ठंडा था। इस वनखण्ड में एक बार भगवान महावीर के पट्टशिष्य इन्द्रभूति गौतम ठहरे हुए थे। उसी दौरान यहाँ पर मेयज्जगोत्रीय पेढालपुत्र उदक' नामक एक पापित्यीय निर्ग्रन्थ गौतम स्वामी के पास कुछ प्रश्नों पर तत्त्वचर्चा करने हेतु आया । चर्चा के दौरान 'उदकपेढालपुत्र' ने इन्द्रभूति गौतम के समक्ष दो शंकाएँ प्रस्तुत की हैं-एक तो त्रसजीवों की हिंसा के प्रत्याख्यान के सम्बन्ध में, दूसरा-वस जीवों के स्थावर हो जाने की सम्भावना पर त्रसजीवों की हिंसा त्याग की व्यर्थता के सम्बन्ध में। इन्द्रभूति गौतम ने दोनों ही शंकाओं का अपनी ओर से यथोचित समाधान करने का प्रयत्न किया है। इस अध्ययन में श्रावक के अहिंसा व्रत के सम्बन्ध में पापित्यीय उदकपेढालपुत्र और भगवान् महावीर के ज्येष्ठ शिष्य इन्द्रभूति गौतम गणधर के बीच जो चर्चा हुई है, उसकी पद्धति को देखते हुए यह कहना अनुपयुक्त न होगा कि भ० पार्श्वनाथ की परम्परा वाले भ० महावीर की परम्परा को अपने से भिन्न परम्परा के रूप में ही मानते थे । भले ही बाद में भ० पार्श्वनाथ की परम्परा महावीर की परम्परा में मिल गई हो । फिर भी दोनों के बीच जो चर्चा हुई है, वह तत्त्व समझने-समझाने की दृष्टि से हुई है। - इस नालन्दीय अध्ययन में उसी चर्चा का विवरण प्रस्तुत किया गया है। इस सम्बन्ध से प्राप्त गद्य में निबद्ध इस अध्ययन का पहला सूत्र इस प्रकार है मूल पाठ तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे नामं नयरे होत्था, रिद्धस्थिमियसमिद्ध वण्णओ जाव पडिरूवे। तस्स णं रायगिहस्स नयरस्स बाहिरिया उत्तर पुरच्छिमे दिसिभाए एत्थ णं नालंदा नाम बाहिरिया होत्था, अणेग भवणसयसन्निविट्ठा जाव पडिरूवा ।। सू० ६८ ।। संस्कृत छाया तस्मिन् काले तस्मिन् समये राजगृहं नाम नगरमासीत् ऋद्धिस्तिमितसमृद्ध वर्णतः यावत् प्रतिरूपम् । तस्य राजगृहस्य नगरस्य बहिः उत्तर,पूर्वस्यां दिग्विभागे अत्र खलु नालन्दा नाम बाहिरिका आसीत्, अनेक भवनशतसन्निविष्टा यावत् प्रतिरूपा ।। सू० ६८ ॥ अन्वयार्थ (तेणं कालेणं तेणं समएणं) उपदेष्टा भगवान् महावीर के उस काल में, तथा उस समय में, अर्थात् उस काल के उस विभाग विशेष में, उस अवसर पर (रायगिहे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003600
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1981
Total Pages498
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size23 MB
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