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सूत्रकृतांग सूत्र
सम्बन्ध में बार-बार
तत्त्व का निश्चय कर
।
उसकी हड्डियों और
अनुराग न था । उसने धर्म या निर्ग्रन्थ प्रवचन के रहस्य को हस्तगत कर लिया था, उसे हृदय से भली-भाँति ग्रहण ( स्वीकार) कर लिया था, उसके पूछताछ करके उसने उसके स्वरूप को जान लिया था, उसके लिया था, उसने अपने चित्त में उसके तत्त्व को जमा लिया था रगों में निर्ग्रन्थ प्रवचनरूप धर्म के प्रति गाढ़ अनुराग था । उससे कोई धर्म के सम्बन्ध में पूछता तो वह यही कहा करता - आयुष्मन् ! मेरे जीवन में सर्वोत्तम धर्म निर्ग्रन्थ प्रवचन है, यही सच्चा है, यही परमार्थ रूप है, इसके सिवाय सब बेकार हैं, अनर्थकर हैं | श्रावकव्रतों के पालन करने से उसकी कीर्ति दूर-दूर तक फैली हुई थी, अन्यतीर्थी भी उसके घर पर आकर चाहे जितना प्रयत्न कर लें, वह तो क्या उसका एक मामूली दास भी सम्यग्दर्शन से विचलित नहीं किया जा सकता था । इस कारण उसके घर के द्वार श्रमण, माहन, साधु-सन्तों आदि सभी याचकों के लिए खुले रहते थे । वह इतना उदार था कि अन्यतीर्थियों के भय से घर के दरवाजे बन्द नहीं करता था । जहाँ अन्य लोगों का प्रवेश निषिद्ध होता है, ऐसे में भी उसका बेरोकटोक प्रवेश था, क्योंकि श्रावक के सम्पूर्ण कारण वह सर्वत्र विश्वासपात्र था, उसके शील एवं अर्थ के सम्बन्ध में किसी को कोई शंका न थी । वह चतुर्दशी, अष्टमी, अमावस्या, पूर्णिमा तथा अन्य शास्त्रोक्त कल्याणकारी तिथियों में आहार शरीर-सत्कार - अब्रह्मचर्य - त्यागरूप प्रतिपूर्ण पौषध करता था । वह श्रमण निर्ग्रन्थों को प्रासुक एषणीय आहार आदि दान देता था । वह अनेकों नियम, व्रत, प्रत्याख्यान तथा १२ श्रावकव्रतों आदि का पालन करता हुआ, अपनी आत्मा को धर्माचरण से पावन करता हुआ विचरण करता था ।
राजाओं के अन्तःपुर गुणों से युक्त होने के
सारांश
इस सूत्र में लेप नामक गृहस्थ की विशेषताओं का वर्णन किया गया है । लेप श्रमणों का उपासक था, निर्ग्रन्थ प्रवचन पर पूर्ण श्रद्धालु था । साथ ही वह सबके प्रति उदार एवं धर्मशोल पुरुष था । अपने व्रत नियमों पर वह दृढ़ था ।
मूल पाठ
तस्स णं लेवस्स गाहावइस्स नालंदाए बाहिरियाए उत्तरपुरच्छिमे दिसिभाए एत्थ णं सेसदविया नामं उदगसाला होत्था, अणेग खंभसयसन्निविट्ठा पासादीया जाव पडिरूवा । तीसे णं सेसदवियाए उदगसालाए उत्तरपुरच्छिमे दिसिभाए, एत्थ णं हत्यिजामे नामं वणसंडे होत्या, किण्हे वण्णओ वणसंडस्स || सू० ७० ॥
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