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________________ छठा अध्ययन : आर्द्र कीय ३८१ युवक और कोई वृद्ध आदि नाना भेद दृष्टिगोचर होते हैं, ये भेद आत्मा को कूटस्थ, एकरूप, एकरस एवं नित्य तथा एक मानने पर संभव नहीं हो सकते । इसलिए आत्मा को एकान्त कूटस्थ नित्य मानना गलत है । वस्तुतः प्रत्येक आत्मा स्वतंत्र है, भिन्नभिन्न है, इसलिए स्व-स्वकर्मानुसार प्रत्येक आत्मा अपना-अपना सुख-दुःख भोगता है, आत्मा का निजीगुण चैतन्य शरीरपर्यन्त ही पाया जाता है, इसलिए वह शरीरमात्रव्यापी है तथा कारण में कार्य द्रव्यरूप से ही रहता हैं, पर्यायरूप से नहीं। आत्मा नाना गतियों में जाता है, इसलिए वह परिणामी है, कूटस्थ नित्य नहीं । अत: आर्हत दर्शन ही युक्तिसंगत और मान्य है, सांख्यदर्शन और आत्माद्वैतवाद नहीं, यह आर्द्रक मुनि का आशय है। आगे आर्द्र क मुनि कहते हैं-जो पुरुष केवलज्ञानी नहीं है, वह वस्तु के सत्य स्वरूप को नहीं जान सकता, क्योंकि वस्तु के सत्य स्वरूप का ज्ञान केवलज्ञान से ही प्राप्त होता है। अतः केवलज्ञानी तीर्थंकरों ने जो उपदेश दिया है, वही मनुष्यों के कल्याण का मार्ग है, दूसरे सब अनर्थ हैं । अतः जिसने केवलज्ञान को प्राप्त नहीं किया, और केवलज्ञानी द्वारा कथित पदार्थों पर श्रद्धा भी नहीं रखता, वह पुरुष धर्मोपदेश करने के योग्य नहीं है। ऐसे मनुष्य जो उपदेश करते हैं, उससे जगत् के जीवों की बड़ी हानि होती है; क्योंकि उनके विपरीत उपदेश से मनुष्य विपरीत आचरण करके संसारसागर में सदा के लिए बद्ध हो जाते हैं । अतः ऐसे मूर्ख जीव स्वयं तो नष्ट हैं ही, साथ ही वे अन्य जीवों को भी नष्ट कर देते हैं । निष्कर्ष यह है कि जो पुरुष केवलज्ञानी है, वही वस्तु के यथार्थ स्वरूप को जानता है, अतः वह पुरुष ही जगत् के हित के लिए सच्चे धर्म का उपदेश देकर अपने और दूसरों को संसारसागर से पार करता है । परन्तु जो पुरुष केवलज्ञानी नहीं है, वह वस्तु के यथार्थ स्वरूप का ज्ञाता न होने के कारण मनमाना आचरण करता हुआ स्वयं भी भ्रष्ट होता है और अन्य प्राणियों को भी भ्रष्ट करता है। जैसे सन्मार्ग को जानने वाला पुरुष ही घोर जंगल में से स्वयं को पार करता है, और उपदेश देकर दूसरे को भी पार करता है, परन्तु जो मार्ग का ज्ञाता नहीं है, और मार्गज्ञाता की बात को भी नहीं मानता, वह उस घोर जंगल में भटकता रहता है। अतः श्रेयार्थी मनुष्य को केवलज्ञानी तीर्थंकरों द्वारा बताये मार्ग से ही चलना चाहिए। __ जो पुरुष अशुभकर्म के उदय से अज्ञानी पुरुषों द्वारा आचरित कुमार्ग का आश्रय लेकर असत् आचरण करते हैं तथा जो सर्वज्ञोक्त मार्ग का आश्रय लेकर उत्तम चारित्र का आचरण करते हैं । यद्यपि इन दोनों के आचरण समान नहीं हैं, किन्तु पहले का आचरण अशुभ और दूसरे का शुभ होने के कारण दोनों के आचरण भिन्नभिन्न हैं, तथापि अज्ञानी जीव इन दोनों को समान ही बतलाते हैं; तथा कई अज्ञानी तो पूर्वोक्त असत्य अनुष्ठान वाले के आचरण को शुभ बतलाते हैं । वस्तुत: यह उनकी अपनी बुद्धि की कल्पनामात्र है, वस्तुस्थिति नहीं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003600
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1981
Total Pages498
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size23 MB
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