________________
३८०
सूत्रकृतांग सूत्र
सिर और गर्दन आदि अवयवों से युक्त नहीं है, वह सर्वलोकव्यापी एवं नित्य है, तथा उसकी नाना योनियों में गति होती है तथापि उसके चैतन्यरूप का कदापि नाश नहीं होता, अतः वह नित्य हैं । उसके प्रदेशों को कोई खण्डित नहीं कर सकता, इसलिए वह अक्षय है । अनन्तकाल बीत जाने पर भी उसके एक अंश का भी नाश नहीं होता इसलिए वह अव्यय है । जैसे चन्द्र अश्विनी आदि तारों के साथ पूर्ण रूप से सम्बद्ध रहता है, वैसे ही यह आत्मा शरीर रूप से परिणत सभी भूतों के साथ पूर्णरूप से सम्बद्ध रहता है, किसी एक अंश से नहीं, क्योंकि वह निरंश है । इस प्रकार आत्मा के ये सब विशेषण हमारे दर्शन में पूर्णरूपेण कहे गये हैं, किन्तु आर्हतदर्शन में नहीं, यह हमारे दर्शन की आर्हतदर्शन से विशेषता है । इसलिए आपको हमारे धर्म में आना चाहिए, आईतधर्म में नहीं । इस प्रकार एकदण्डी (सांख्य) दार्शनिकों ने आर्द्रक मुनि को फुसलाने का प्रयत्न किया ।
लेकिन आर्द्र क मुनि गम्भीर विचारक और जैनदर्शन के रंग में गहरे रंगे हुए थे । उन्होंने एकदण्डिकों का यथातथ्य विश्लेषण करते हुए कहा-आपके साथ हमारे मत की एकता इसलिए नहीं हो सकती कि आप एकान्तवादी हैं और हम अनेकान्तवादी हैं । आप आत्मा को सर्वव्यापी मानते हैं, हम उसे शरीरमात्रव्यापी मानते हैं। इस तरह आत्मा के विषय में जैसा हमारा और आपका मतैक्य नहीं है, वैसे ही संसार के स्वरूप के विषय में भी हम और आप एकमत नहीं हैं । आप कहते हैंसभी पदार्थ प्रकृति से सर्वथा अभिन्न हैं और हम कहते हैं कि कारण में कार्य द्रव्यरूप से रहता है, पर्याय रूप से नहीं । आपके और हमारे बीच में यह बड़ा मतभेद है। आपके मत से कार्य कारण में सर्वात्मरूप से विद्यमान रहता है, हमारे मत से वह सर्वात्मरूप से विद्यमान नहीं रहता। हमारे मत में सभी सत् पदार्थ उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य से युक्त माने जाते हैं, जबकि आप ऐसा नहीं मानते । आप सभी पदार्थों को ध्रौव्ययुक्त ही मानते हैं । यद्यपि आप पदार्थों का आविर्भाव एवं तिरोभाव मानते हैं, लेकिन वे भी उत्पत्ति और विनाश के बिना नहीं हो सकते । अतः आपके साथ हमारा ऐहिक और पारलौकिक किसी भी पदार्थ के सम्बन्ध में मतैक्य नहीं है।
___ आप आत्मा को सर्वव्यापी मानते हैं, यह मान्यता युक्ति से सिद्ध नहीं होती, क्योंकि चैतन्यरूप आत्मा का गुण सर्वत्र नहीं पाया जाता, शरीर में ही उसका अनुभव होता है, इसलिए आत्मा को सर्वव्यापी न मानकर शरीरमात्रव्यापी मानना ही उचित है । जो वस्तु आकाश की तरह सर्वव्यापी होती है, वह गति नहीं कर सकती, जबकि आत्मा कर्म से प्रेरित होकर नाना गतियों में गमनागमन करती है । अतः इसे सर्वव्यापी मानना यथार्थ नहीं है । आप लोग आत्मा में किसी प्रकार का विकार होना नहीं मानते, उसे सदा एकरूप, एकरस बतलाते हैं, ऐसी स्थिति में उसका विभिन्न गतियों और योनियों में परिवर्तन कैसे हो सकता है ? इस जगत् में कोई दुःखी, कोई सुखी, कोई कुरूप, कोई सुरूप, कोई धनी, कोई निर्धन, कोई बालक, कोई
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org