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सूत्रकृतांग सूत्र
सारांश ४६वीं गाथा से लेकर ५१वीं गाथा तक में शास्त्रकार ने एकदण्डी (सांख्य) मतवादी और आर्द्रक मुनि के पारस्परिक संवाद का निरूपण किया है । वास्तव में सांख्यदर्शन ने आत्मा के सम्बन्ध में जो विचार प्रस्तुत किए हैं, उनके अकाट्य समाधान श्री आर्द्र क मुनि ने दिये हैं।
मूल पाठ संवच्छरेणावि य एगमेगं, बाणेण मारेउ महागयं तु। सेसाण जीवाण दयठ्याए, वासं वयं वित्ति पकप्पयामो॥५२॥ संवच्छरेणावि य एगमेगं, पाणं हणंता अणियत्तदोसा। सेसाण जीवाण वहेण लग्गा, सिया य थोवं गिहिणोऽवि तम्हा ॥ ५३ ॥ संवच्छरेणावि य एगमेगं, पाणं हणंता समणव्यएसु। आयाहिए से पुरिसे अणज्जे, ण तारिसे केवलिणो भवंति ॥ ५४ ।।
संस्कृत छाया संवत्सरेणापि चैकेकं वाणेन, मारयित्वा महागजं तु। शेषाणां जीवानां दयार्थाय वर्ष वयं वृत्ति प्रकल्पयामः ॥ ५२ ।। संवत्सरेणापि चैकेकं प्राणं घ्नन्तोऽनिवृत्तदोषाः । शेषाणां जीवानां वधेन लग्ना:, स्यात् स्तोकं गृहिणोऽपि तस्मात् ॥ ५३॥ संवत्सरेणाऽपि चैकेकं प्राणं घ्नन् श्रमणव्रतेषु । आख्यातः स पुरुषोऽनार्यः, न तादृशाः केवलिनो भवंति ॥ ५४ ।।
अन्वयार्थ हस्तितापस आईक मुनि से कहते हैं-(वयं सेसाणं जीवाणं दयट्ट्याए) हम लोग शेष जीवों की दया के लिए (संवच्छरेणावि य बाणेण एगमेगं महगयं तु मारे उ) वर्ष भर में बाण से एक बड़े हाथी को मारकर (वासं वित्ति पकप्पयामो) वर्ष भर उसके मांस से अपना निर्वाह करते हैं ॥५२॥
(संवच्छरेणावि य एगमेगं पाण हणता अणियत्तदोसा) वर्ष भर में एक-एक प्राणी को मारने वाले पुरुष भी दोषरहित नहीं है, (सेसाणं जीवाणं वहण लग्गा गिहिणो वि तम्हा थोवं सिया य) क्योंकि शेष जीवों के घात में प्रवृत्ति न करने वाले गृहस्थ भी दोषवजित क्यों न माने जाएँगे ॥५३॥
(समणव्वएसु संवच्छरेणावि एगमेग पाण हणता) जो पुरुष श्रमणों के व्रत में स्थित होकर वर्ष भर में भी एक-एक प्राणी को मारता है, (से पुरिसे अणज्जे आयाहिए) वह पुरुष अनार्य कहा गया है, (तारिसे केवलिणो न भवंति) ऐसे पुरुष को केवलज्ञान की प्राप्ति नहीं होती ॥५४॥
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