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छठा अध्ययन : आर्द्रकीय
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प्राणियों की रक्षा के लिए निरवद्य भाषा बोलते हैं, और निरवद्य कार्य का ही अनुष्ठान करते हैं । ऐसे पुरुषों को किसी प्रकार का पाप नहीं लगता। अतः इन पुरुषों का जो धर्म है, वही सच्चा और दोषरहित है । इसलिए ऐसे धर्म के वक्ता और श्रोता दोनों ही उत्तम है, यह जानो।
आर्द्रक मुनि कहते हैं-बौद्ध भिक्षुओ ! यह तो सर्वविदित है कि खली के पिण्ड में पुरुषबुद्धि होना अत्यन्त मूर्ख के लिए भी सम्भव नहीं है। पशु आदि भी पुरुष और खली को एक नहीं मानते । अतः जो अज्ञानी व्यक्ति पुरुष को खली समझकर आग में भूनकर खाता है, दूसरे को भी ऐसा करने का उपदेश देता है, वह निश्चय ही अनार्य है । खली के पिण्ड में पुरुषबुद्धि होना सम्भव नहीं है । अतः जो पुरुष मनुष्य को खली का पिण्ड बताता है, वह बिलकुल असत्य भाषण करता है । अतः आपका मत आर्य पुरुषों के लिए उपादेय नहीं है । सिद्धान्त यह है कि सावध भाषा बोलने से पाप लगता है, इसलिए भाषा के गुण-दोष के ज्ञाता विवेकी पुरुष कर्मबन्धजनक भाषा नहीं बोलते तथा वस्तुतत्त्व को जानकर सत्य अर्थ के उपदेशक प्रवजित पुरुष 'खली पुरुष है, तथा पुरुष खली है,' एवं 'बालक तुम्बा है, और तुम्बा बालक है', ये या इस प्रकार के युक्तिरहित और मिथ्या वचन कभी नहीं कहते।
आर्द्र क मुनि बौद्ध भिक्षुओं को निरुत्तर करके उन पर करारा व्यंग्य कसते हैं -वाह रे बौद्धभिक्षुओ ! तुमने ही दुनिया भर का पदार्थज्ञान प्राप्त किया है, समस्त जीवों के शुभाशुभ कर्मफल को तुम ही ने समझा है, इस प्रकार के विज्ञान से तुम्हारा यश ही संसार भर में फैला हुआ है, तुमने ही अपने विज्ञान बल से हथेली पर रखे हुए पदार्थ की तरह सब पदार्थों को जानने का ठेका ले लिया है । धन्य है, तुम्हें और तुम्हारे इस विचित्र विज्ञान को, जो पुरुष और खलीपिण्ड, तुम्बा और बालक में कोई अन्तर न मानने से पाप नहीं होता, और अन्तर मानने से पाप होना, बतलाता है।।
____ आईक मुनि बौद्धमत का खण्डन करने के बाद अब अपने मत का मण्डन करते हुए कहते हैं-जैनेन्द्रशासन के अनुयायी बुद्धिमान साधक प्राणियों की पीड़ा या कर्मफल का भलीभाँति विचार करके शुद्ध भिक्षान्न को ही ग्रहण करते हैं । वे ४२ दोषों को वजित करके जीवविघात से सर्वथा दूर रहने का प्रयत्न करते हैं। जैसे बौद्ध साधक भिक्षापात्र में आए हुए मांस को भी बुरा नहीं मानते, वैसे आहतसाधक नहीं करते । जो पुरुष कपट से जीविका करता और कपट से बोलता है, वह साधु बनने के योग्य नहीं है । इसलिए जैनधर्म ही पवित्र एवं आदरणीय है। बौद्धों का यह कथन ठीक नहीं है कि अन्न भी मांस के सदृश है, क्योंकि वह भी प्राणी का अंग है । किन्तु प्राणी का अंग होने पर भी जगत् में कोई वस्तु मांस और कोई अमांस मानी जाती है। जैसे दूध और रक्त दोनों ही गाय के विकार हैं, तथापि लोक में ये दोनों अलगअलग माने जाते हैं, दूध भक्ष्य और रक्त अभक्ष्य माना जाता है। अपनी माता
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