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________________ ३७० सूत्रकृतांग सूत्र कर उन्हें शूल में पिरोकर आग में पकाता है, तो उसे प्राणिवध का पाप नहीं लगता है, वह आहार निर्दोष है और बुद्धों के पारणे के योग्य है । तात्पर्य यह है कि जो कार्य भूल से हो जाता है, तथा जो मन के संकल्प के बिना किया जाता है, वह बंधन का कारण नहीं होता । इसके पश्चात् वे शाक्यभिक्षु आर्द्रक मुनि से कहते हैंहमारा यह भी सिद्धान्त है कि जो व्यक्ति प्रतिदिन दो हजार शाक्यभिक्षुओं को अपने यहाँ भोजन कराता है, वह महान् पुण्यराशि उपार्जित करके उसके फलस्वरूप आरोप्य नामक उत्तम देव होता है । शाक्य भिक्षुओं का सिद्धान्त सुनकर आर्द्रक मुनि बोले- शाक्यभिक्षुओ ! आपके ये (पूर्वोक्त) सिद्धान्त बड़े विचित्र हैं, ये संयमी पुरुषों के द्वारा ग्रहण करने योग्य नहीं हैं । जो पुरुष पाँच समिति और तीन गुप्तियों का पालन करता हुआ सम्यग्ज्ञानपूर्वक क्रिया करता है, और अहिंसाव्रत का आचरण करता है, उसी की भावशुद्धि होती है, परन्तु जो पुरुष अज्ञानी है, और मोह में पड़कर खली और पुरुष के अन्तर को नहीं जानता, उसकी भावशुद्धि कदापि नहीं हो सकती । मनुष्य को खली मानकर उसे शूल में बींधकर पकाना और उसे खली समझकर मांसभक्षण करना, और प्राणियों की जबर्दस्ती हिंसा करना अत्यन्त पापजनक ही है | चाहे वह हिंसा स्वयं की गई हो, अथवा दूसरे से कराई गई हो, या उसकी अनुमोदना की गई हो, वह हिंसा कभी धर्मयुक्त नहीं हो सकती । अतः ऐसे हिंसा कार्यों में पाप का अभाव बताने वाले और उसे सुनकर वैसा ही मानने वाले दोनों ही पुरुष अज्ञानी और पापवृद्धि करने वाले हैं । ऐसे पुरुषों का भाव कमी शुद्ध नहीं होता । यदि ऐसे पुरुषों का भाव शुद्ध माना जाय, तब तो जो लोग रोग आदि से पीड़ित प्राणी को विष आदि का प्रयोग करके मार डालने का उपदेश देते हैं, उनके भावों को भी शुद्ध क्यों नहीं मानना चाहिए ? परन्तु बौद्धगण उसके भाव को शुद्ध नहीं मानते । यदि भावशुद्धि ही एकमात्र कल्याण का साधन है, तो फिर बौद्ध भिक्षु सिर का मुण्डन और भिक्षावृत्ति आदि बाह्य क्रियाएँ क्यों करते हैं ? इससे यह सिद्ध होता है कि भावशुद्धि के साथ क्रिया की पवित्रता भी आवश्यक है । जो लोग मनुष्य को खली समझकर उसे आग में पकाने के लिए झोंकते हैं, वे तो घोरपापी तथा प्रत्यक्ष ही अपनी आत्मा को धोखा देने वाले हैं । इसलिए उनका भाव भी दूषित है । अतः बौद्धों की पूर्वोक्त मान्यता ठीक नहीं है । आर्द्रक मुनि बौद्धों के पक्ष को दूषित करके अब अपना पक्ष प्रस्तुत करते हैं— ऊँची, नीची और तिरछी सर्व दिशाओं में त्रस और स्थावर प्राणी निवास करते हैं । वे अपनी-अपनी जाति के अनुसार चलना, कम्पन, अंकुर उत्पन्न करना आदि क्रियाएँ करते हैं, तथा छेदन करने पर स्थावर प्राणी मुरझा जाते हैं, इत्यादि बातें उनके जीव होने के प्रत्यक्ष चिह्न हैं । अतः विवेकी पुरुष इन चिह्नों को देखकर इन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003600
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1981
Total Pages498
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size23 MB
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