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________________ छठा अध्ययन : आर्द्रकीय ३६१ सदा स्थित रहते हैं और कर्मविवेक (कर्मनिर्जरा) के कारण है । (तमायदंडेहि समायरंता) ऐसे वीतराग सर्वज्ञ पुरुष को तुम जैसे आत्मा को दण्ड देने वाले व्यक्ति ही बनिये के सदृश कहते हैं . (एयं ते अबोहिए पडिरूवं) यह कार्य तुम्हारे अज्ञान के अनुरूप ही है, अथवा ऐसा कथन तुम जैसे अबोधिक लोगों के मुंह से निकल सकता है ।।२।। व्याख्या गोशालक द्वारा प्रदत्त वणिक् की उपमा का प्रतिवाद १९वीं गाथा में गोशालक द्वारा भगवान् महावीर पर वणिक् होने का आक्षेप किया गया है, जिसका खण्डन आर्द्र क मुनि ने २०वीं गाथा से लेकर पच्चीसवीं गाथा तक में बड़े ही मार्मिक ढंग से किया गया है, जिसे शास्त्रकार ने अंकित किया है। पूर्व गाथाओं में आर्द्र क मुनि ने एक बात स्पष्ट रूप से गोशालक से कही थी कि भ० महावीर जहाँ दूसरों के उपकार आदि रूप लाभ देखते हैं, वहाँ जाते हैं, और उपदेश भी देते हैं, परन्तु जहाँ वे ऐसा लाभ नहीं देखते, वहाँ वे नहीं जाते और न ही उपदेश देते हैं । इस बात को पकड़कर गोशालक भ० महावीर पर व्यंग्य कसते हुए आर्द्र क मुनि से कहता है-आर्द्र क ! लाभ तो बनिया देखता है । जैसे कोई बनिया कपूर, अगर, कस्तूरी, आदि बेचने योग्य वस्तुएँ लेकर लाभ के लिए दूसरे देश में जाता है, और वहाँ अपने लाभ के लिए महाजनों से सम्पर्क भी करता है, इसी तरह तुम्हारे ज्ञातपुत्र महावीर भी अपनी पूजा-प्रतिष्ठा तथा आहारादि के लाभ के लिए विभिन्न देशों (प्रान्तों या प्रदेशों) में जाते हैं, और वहाँ बड़े-बड़े लोगों से सम्पर्क करते हैं, उन्हें उपदेश देते हैं । इसलिए मुझे तो तुम्हारे महावीर बनियों जैसे लगते हैं। बनिये की उपमा उन पर ठीक घटित होती है, क्योंकि वे अपने स्वार्थ साधन या पूर्वोक्त लाभ के लिए ही जनसमूह में जाकर उपदेश आदि करते हैं, यह मैंने अपनी पैनी बुद्धि से सोच-विचारकर तुम्हें कहा है, मेरी बात तुम सत्य मानो। गोशालक के द्वारा किये गये आक्षेप को सुनकर आईक मुनि बोले -वाह गोशालक वाह ! धन्य है तुम्हारी बुद्धि को। तुमने जो भगवान् महावीर स्वामी को लाभार्थी (उदयार्थी) वणिक् की उपमा दी है, वह पूर्णत: तुल्यता को लेकर दी है या एकदेशीय (आंशिक) तुल्यता को लेकर दी है । अगर तुमने एकदेशीय तुल्यता को लेकर वणिक् की उपमा दी है, तब तो मैं तुमसे सहमत हूँ, क्योंकि भ० महावीर भी जहाँ आत्मिक उपकार आदिरूप लाभ देखते हैं, वहीं उपदेश करते हैं, जहाँ ऐसा लाभ नहीं देखते, वहाँ वे उपदेश नहीं करते । अतः लाभार्थी वैश्य की उपमा अंशतः (इस दृष्टि से) तो ठीक संगत होती है, लेकिन सम्पूर्ण तुल्यता को लेकर यदि वणिक् से भगवान् की तुलना तुमने की है तो वह कदापि संगत नहीं होती । क्योंकि भगवान् सर्वज्ञ हैं, जबकि वणिक् अल्पज्ञ होते है । सर्वज्ञ होने के कारण वे समस्त सावद्यकार्यों से रहित होने से नये कर्मबन्धन नहीं करते, साथ ही पूर्वबद्ध (भव को प्राप्त कराने वाले) कर्मों की वे निर्जरा करते हैं, अथवा क्षय करते हैं; जबकि वणिक ऐसा नहीं करते । भगवान Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003600
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1981
Total Pages498
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size23 MB
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