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________________ ३६२ सूत्रकृतांग सूत्र कुबुद्धि को छोड़कर सबकी रक्षा करने वाले हैं । सर्वत्र भ्रमण करते हैं और उपदेश देते हैं । जो पुरुष कुबुद्धि का परित्याग करता है, सभी की रक्षा करता है, वही मुक्ति पाता है, ऐसा भगवान् ने स्वयं कहा है । अत: भगवान् मोक्षव्रत का अनुष्ठान करने वाले हैं, वे मोक्षोदय के अर्थी-मुक्ति लाभार्थी अवश्य हैं, यह मेरा अभिमत है, उनके सम्बन्ध में। - आर्द्रक मुनि आगे कहते हैं -गोशालक ! बनियों का आचरण तो पूर्वोक्त आचरण से प्रायः विपरीत होता है। सामान्यतः बनियों का आचरण ऐसा है कि वे सावध (सदोष) क्रिया या प्रवृत्ति (आरम्भयुक्त) करते हैं, जिससे अनेक प्राणियों की हिंसा होती है। वे ऊँट, बैलगाड़ी या अन्य साधनों द्वारा माल इधर से उधर भेजते या लाते-ले जाते हैं, जिसमें अनेक प्राणियों का संहार होता है, वे द्विपद-चतुष्पद, धनधान्य, जमीन-जायदाद आदि परिग्रह पर ममत्व रखते हैं, वे उक्त परिग्रह में अत्यन्त आसक्त होते है, उसकी रक्षा के लिए मरने-मारने को तैयार हो जाते हैं । परिग्रह सम्बन्धी ममत्व के कारण दशों दिशाओं में रातदिन दौड़-धूप करते हैं । वे अपने ज्ञातिजनों के साथ सम्बन्ध रखते हुए भी परिग्रह के लाभ के लिए जिन लोगों से वास्ता नहीं रखना चाहिए, उनसे भी अधिकाधिक सम्पर्क रखते हैं । परन्तु भगवान् वीर प्रभु ऐसे नहीं, वे निष्परिग्रही और निष्काम हैं, आरम्भ से दूर रहते हैं । वे छहों काया के जीवों के रक्षक हैं, स्वजनों के त्यागी हैं, अप्रतिबद्धविहारी हैं। वे धर्मवृद्धि के लिए उपदेश देते हैं। इसलिए भगवान के साथ बनिये का सर्वसादृश्य बताना बिलकुल गलत है । फिर बनिये तो जैसे-तैसे व्यापार द्वारा एकमात्र धन के अभिलाषी होते हैं, वे धन की प्राप्ति के लिए इधर-उधर मारे-मारे फिरते हैं, वे सांसारिक काम-सुखों और कामिनियों में गाढ़ आसक्त रहते हैं। वे भोजनादि साधनों के लिए इतस्तत: घूमते रहते हैं। उन्हें हम वास्तविक उदयार्थी या लाभार्थी नहीं कह सकते । सच्चे माने में वे तो सांसारिक काम-भोगों में तथा रागरंगों में गाढासक्त रहते हैं। कहाँ वे और कहाँ कामभोग, राग-द्वष आदि से सर्वथा दूर, कंचनकामिनी के त्यागी मोक्षलाभार्थी भगवान महावीर । ऐसे बनियों से भगवान् की तुलना करना तुम्हारी बुद्धि का दिवालियापन है। गोशालक ! जरा ठंडे दिल-दिमाग से सोचो कि बनियों और भ० महावीर में कितना अन्तर है ? बनिये सावद्य अनुष्ठान-हिंसाजनित आरम्भ एवं परिग्रह का सर्वथा त्याग नहीं करते हैं । वे क्रय-विक्रय, पचन-पाचन आदि सावद्यकर्म करते हैं। वे धनधान्य, हिरण्य-सुवर्ण, द्विपद-चतुष्पद आदि पदार्थों में अत्यन्त ममत्व रखते हैं । वे असत् आचरणों में प्रवृत्त रहते हुए अपनी आत्मा को अधोगति में गिराकर उसे दण्ड देते हैं। वे जिस लाभ के लिए इन कार्यों को करते हैं, जिन्हें तुम जैसे लोग लाभ मानते हैं, परन्तु जरा विवेक के गज से नाप कर देखो तो वह वास्तविक लाभ है ही नहीं। अनन्त काल तक चार गतियों में परिभ्रमण करना कौन-सा लाभ है ? वह तो घाटे का सौदा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003600
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1981
Total Pages498
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size23 MB
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