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________________ सूत्रकृतांग सूत्र बन्धन नहीं करते (पुराणं विहुणे) अपितु वे पुराने कर्मों का क्षय करते हैं । (तायी स एवमाह अमइं चिच्चा) षड्जीवनिकाय के त्राता-रक्षक वे भगवान् महावीर स्वयं ऐसा कहते हैं कि प्राणी कुमति का त्याग करके ही मोक्ष को पाता है। (एतोवया बभवति त्ति वुत्ता) इसी प्रकार से (त्याग करने मात्र से) ही मोक्ष का व्रत कहा गया है। (तस्सोदयट्ठी समणे त्ति बेमि) उसी मोक्ष के उदय-लाभ की इच्छा वाले श्रमण भगवान् महावीर हैं, ऐसा मैं कहता हूँ ॥२०॥ (वणिया भूयगाम समारभंते) हे गोशालक ! बनिये तो प्राणिसमूह का आरम्भ (हिंसाजनित प्रवृत्ति) करते हैं, (परिग्गहं चेव ममायमाणा) तथा वे परिग्रह पर भी ममत्व रखते हैं, (ते णाइसंजोगमविप्पहाय आयस्स हेउं संग पगरंति) एवं वे ज्ञातिजनों के सम्बन्धों को न छोड़ते हुए लाभ के लिए दूसरों (सम्बन्ध न करने योग्य लोगों) से भी सम्बन्ध करते हैं ॥२१॥ (वणिया वित्तेसिणो मेहुणसंपगाढा) बनिये धन के अन्वेषी (अभिलाषी) और मैथुन में अत्यन्त आसक्त होते हैं, (ते भोयणट्ठा वयंति) वे भोजन (या भोगों) के लिए इधर-उधर जाते रहते हैं । (वयं तु कामेसु अझोववन्ना पेमरसेसु गिद्धा अणारिया) किन्तु हम तो ऐसे बनियों को कामभोगों में आसक्त, प्रेम-राग के वश में गृद्ध फंसे हुए और अनार्य कहते हैं, (मगर भगवान् महावीर इस प्रकार के स्वहानिकर्ता बनिये नहीं हैं) ॥२२॥ (आरंभग चेव परिग्गरं च अविउस्सिया णिस्सिय आयदंडा) बनिये आरम्भ और परिग्रह को नहीं छोड़कर उनमें अत्यन्त बँधे रहते हैं, तथा वे अपनी आत्मा को दण्ड देते रहते हैं । (तसि च से उदए जं वयासी) उनका वह उदय (लाभ), जिसे तुम उदय (लाभ) बता रहे हो, वस्तुतः वह उदय नहीं है, (चउरतणंताय दुहाय णेह) किन्तु वह चातुर्गतिक तथा अनन्त संसार का कारण होता है, तथा दुःख के लिए होता है, वह वास्तव में उदय है ही नहीं, होता भी नहीं ॥२३॥ (से उदए एवं गत णच्चंतिव ते वयंति) विद्वान् लोग धनलाभ आदि पूर्वोक्त सावद्य-अनुष्ठान रूप उदय को न तो एकान्तिक उदय (लाभ) कहते हैं और न ही आत्यन्तिक । (दो विगुणोदयंमि) जो उदय एकान्तिक और आत्यन्तिक सुख रूप दोनों गुणों (लाभों) से रहित है, उसमें कोई गुण (विशेषता) नहीं है । (से उदए साइमणंतपत्ते) परन्तु भगवान् महावीर जिस उदय (लाभ) को पाए हुए हैं, वह सादि और अनन्त है । तमुदयं साहयइ तायी णायी जीवों के त्राता एवं सर्वज्ञाता भगवान् महावीर उसी उदय (केवलज्ञान एवं सर्वप्राणिदयारूप लाभ) की प्राप्ति का उपदेश दूसरों को करते हैं ॥२४॥ (अहिंसयं सव्वपयाणुकंपी) भगवान् प्राणियों की हिंसा से सर्वथा रहित हैं और समस्त प्राणियों पर अनुकम्पा (दया) करते हैं । (धम्मे ठियं कम्मविवेगहेउ) वे धर्म में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003600
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1981
Total Pages498
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size23 MB
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