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________________ छठा अध्ययन : आर्द्र कीय उड्ढे अहेयं तिरियं दिसासु, तसा य जे थावरा जे य पाणा। भूयाहिसंकाभिदुगुछमाणा, णो गरहई वुसिमं किंचि लोए ॥१४॥ संस्कृत छाया इमां वाचं तु त्वं प्रादुष्कुर्वन् प्रवादिनः गर्हसे सर्वानेव । प्रवादिनः पृथक् कीर्तयन्तः स्वकां स्वकां दृष्टि कुर्वन्ति प्रादुः ॥ ११ ॥ तेऽन्योऽन्यस्य तु गर्हमाणाः, आख्यान्ति भोः श्रमणाः माहनाश्च । स्वतश्चाऽस्ति अस्वतश्च नास्ति गर्हामहे दृष्टि न गर्हामहे किंचित् ।। १२ ॥ न कंचन रूपेणाभिधारयामः, स्वदृष्टिमार्गच कुर्मः प्रादुः। मार्गोऽयं कीर्तित आर्येरनुत्तरः सत्पुरुषैरंजु ।। १३ ।। ऊर्ध्वमधस्तिर्यग्दिशासु, त्रसाश्च ये स्थावरा ये च प्राणाः । भूताभिशंकाभिर्जुगुप्समानो, नो गर्हते संयमवान् किंचिल्लोके ॥ १४ ॥ अन्वयार्थ (इमं वयं तु पाउकुव्वं तुम सव्व एव पावाइणो गरिहसि) गोशालक कहता है-हे आर्द्रक ! तुम इस वचन को कहकर समस्त प्रावादुकों (विभिन्न शास्त्रों के व्याख्याताओं) की निन्दा करते हो। (पावाइणो पुढे किट्टयंता सयं सयं दिट्टि पाउं करेंति) प्रावादुकगण पृथक्-पृथक् अपने सिद्धान्तों को बताते हुए अपनी-अपनी दृष्टि (दर्शन) को प्रकट करते हैं ॥११॥ (ते समणा माहणा य अन्नमन्नस्स उ गरहमाणा अवखंति) आर्द्र क मुनि कहते हैं-वे श्रमण और ब्राह्मण परस्पर एक-दूसरे की निन्दा करते हुए अपने-अपने दर्शन की प्रशंसा करते हैं। (सतो य अस्थि असतो य पत्थि दिट्टि गरहामो ण किंचि) अपने दर्शन में प्रतिपादित क्रिया के अनुष्ठान से पुण्य, धर्म या मोक्ष होता है, ऐसा कहते हैं, अतः हम उनकी एकान्त एकांगी दृष्टि की निन्दा करते हैं, किसी व्यक्ति विशेष की हम कुछ भी निन्दा नहीं करते ॥१२॥ (किंचि स्वेण ण अभिधारियामो) हम किसी के रूप और वेष आदि की निन्दा नहीं करते. (सदिदिमागं तु पाउं करमु) किन्तु अपनी दृष्टि (दर्शन) के मार्ग को अभिव्यक्त करते हैं । (इमे मग्गे अणुत्तरे सप्पुरिसेहिं आरिएहिं अंजू किट्टिए) यह मार्ग सर्वोत्तम है और आर्य सत्पुरुषों द्वारा निर्दोष रूप में कहा गया है ॥१३॥ (उड्ढे अहेयं तिरियं दिसासु तसा य जे थावरा जे य पाणा) ऊर्ध्व दिशा, अधो दिशा तथा तिरछी (पूर्वादि) दिशाओं में जो त्रस या स्थावर प्राणी हैं, (भूयाहिसंकाभिदुगुछमाणो बुसिमं लोए न किंचि गरहई) उन प्राणियों की हिंसा से घृणा करने वाले पुरुष इस लोक में किसी की निन्दा नहीं करते ॥१४॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003600
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1981
Total Pages498
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size23 MB
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