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________________ ३५२ सूत्रकृतांग सूत्र श्रमणों में क्या अन्तर रहा ? मेरी दृष्टि में यह श्रमणों का लक्षण नहीं है । श्रमणों का लक्षण है-अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह का पालन करना, समभाव में रहना, तप-संयमयुक्त जीवन बिताना । सचित्त जल, वनस्पति, नारी आदि का सेवन करना तो भोगियों का लक्षण है, त्यागियों का नहीं। इनके सेवन करने से तो त्यागी श्रमण का जीवन पतित हो जाता है । अब रही अकेले रहने की बात । यदि अकेले रहने मात्र से ही श्रमणत्व आ जाता हो और कोई दोष न लगता हो, गृहस्थ भी जब परदेश जाते हैं, तब वहाँ अकेले रहते हैं, कहीं दूर नौकरी हो तो भी अकेले रहते हैं, वे भी श्रमण कहलाने लगेंगे । इसके अतिरिक्त बाह्य तपस्या से ही श्रमणत्व आ जाता हो तो गृहस्थ लोग भी ऐसी तपस्या करते रहते हैं, धन प्राप्ति के लिए वे भूख-प्यास के कष्टों को सहन करते हैं, क्या वे भी श्रमण माने जाएंगे। वस्तुत: वे गृहस्थ ही कहलाते हैं, श्रमण नहीं । इसलिए श्रमणत्व के ये दोनों लक्षण अतिव्याप्त दोषयुक्त हैं। जो व्यक्ति अपने परिवार आदि के संसर्ग को छोड़कर प्रव्रज्या लेकर भिक्षु बन गया है, वह यदि सचित्त जल, बीजकाय, आधाकर्मयुक्त आहार आदि तथा कामिनी का सेवन करता हो तो वह दाम्भिक ही समझा जाएगा। ऐसे पुरुष भिक्षाचर्या करते हैं, वह कर्मों का अन्त करने हेतु नहीं, किन्तु अपने उदर-भरण और शरीरपोषण के लिए ही करते हैं। वास्तव में जो व्यक्ति षट्काय के जीवों का आरम्भ करतेकराते हैं, वे चाहे द्रव्य से ब्रह्मचारी भी हो, परन्तु वे संसार का अन्त करने में समर्थ नहीं है । अतः तुम्हारा सिद्धान्त मिथ्या है, उपादेय नहीं है। सारांश ___ सातवीं गाथा में गोशालक द्वारा अपने सुविधावादी श्रमण सिद्धान्त की चर्चा की गई है, कि चाहे कैसा भी साधक हो, वह सचित्त जल, वनस्पति या आधाकर्मयुक्त आहारादि अथवा कामिनियों का सेवन करे तो भी कोई दोष नहीं है, बशर्ते कि वह एकाकी विचरण करता हो और तपस्वी हो। आर्द्र कमुनि ने इसका खण्डन आठवी, नवीं, दसवीं तीन गाथाओं में किया है । मूल पाठ इमं वयं तु तुम पाउकुव्वं, पावाइणो गरिहसि सव्व एव । पावाइणो पुढो किट्टयंता, सयं सयं दिठि करेंति पाउं ।। ११ ॥ ते अन्नमन्नस्स उ गरहमाणा, अक्खंति भो समणा माहणा य । सतो य अत्थी असतो य णत्थी, गरहामो दिट्ठि ण गरहामो किंचि ॥१२॥ ण किंचि रूवेणऽभिधारयामो, सदिट्ठिमग्गं तु करेमु पाउं । मग्गे इमे किट्टिए आरिएहि, अणत्तरे सप्पुरिसेहिं अंजू ॥ १३ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003600
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1981
Total Pages498
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size23 MB
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