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________________ ३५४ व्याख्या दार्शनिकों के विवाद के सम्बन्ध में आर्द्रक की दृष्टि ग्यारहवीं गाथा में गोशालक ने फिर प्रश्न छेड़ा है कि आर्द्रक ! यों अपने मत केही एकांगी प्रतिपादन से कौन तुम्हारी बात को सच्ची मान लेगा ? बात तो वही सत्य मानी जाएगी, जो विविध दार्शनिकों द्वारा बहुमत से मान्य हो, प्रस्तुत विषय में अर्थात् शीतजल, बीजकाय, आधाकर्म आदि के उपभोग के विषय में कर्मबन्ध बताकर तुम समस्त दार्शनिकों के मत की अवहेलना कर रहे हो । वे तो अपने दर्शन के मतानुसार शीतजल आदि के सेवन से संसार से पार होने का स्वयं प्रयत्न करते हैं, तथा अपनी-अपनी दृष्टि प्रकट करते हुए वे अपने-अपने दर्शन में विहित आचरण से पुण्य, धर्म एवं मोक्ष बताते हैं । परन्तु यदि तुम्हारे मन्तव्यानुसार शीतजल आदि के सेवन से कर्मबन्ध माना जाए तब तो इन दार्शनिकों का प्रयत्न व्यर्थ है, वह मुक्ति के साधक बदले बन्धन का साधक होगा । इसलिए तुम समस्त दार्शनिकों की निन्दा कर रहे हो । इस आशय का गोशालक का आक्षेप है । इस आक्षेप का परिहार करते हुए आर्द्रक मुनि कहते हैं— गोशालक ! इसमें निन्दा की कोई बात नहीं है । वस्तुस्वरूप का प्रतिपादन करना निन्दा नहीं है । निन्दा तो तब होती, जब मैं उन पर व्यक्तिगत आक्षेप करता । वस्तुतः इस प्रकार से व्यक्तिगत निन्दा करना समभावी साधु के लिए कथमपि उचित नहीं है । हमने तो उक्त एकान्त दृष्टिकोण का विरोध किया है, और करते हैं, जो विभिन्न दार्शनिक अपने-अपने दर्शन में कथित क्रिया के अनुष्ठान से ही पुण्य, धर्म और मोक्ष बतलाते हैं और दूसरों के दर्शन में उक्त आचरण से नहीं । इस प्रकार स्वदर्शन-प्रशंसा और परदर्शन - निन्दा से हमें घृणा है । हम किसी के व्यक्तिगत रूप या वेष की निन्दा नहीं करते, उसके अंगोपांगों की हम कोई बुराई नहीं करते; हम तो सिर्फ अपने दर्शन के मार्ग को ही अभिव्यक्त करते हैं । सूत्रकृतांग सूत्र देखो, सभी दार्शनिकों का अनुष्ठान भी परस्पर विरुद्ध प्रतीत होता है । फिर भी वे अपने-अपने पक्ष का समर्थन और परपक्ष को दूषित करते हैं । तथा सभी अपनेअपने धर्मशास्त्र में प्रतिपादित विधान से मुक्ति की प्राप्ति और परदर्शन के शास्त्र में उक्त विधान से मुक्ति का निषेध बतलाते हैं, यह बात सत्य है, मिथ्या नहीं है । परन्तु . मैं इस नीति का आश्रय लेकर किसी की निन्दा नहीं करता, वरन् मध्यस्थ भाव से वस्तु के सत्य स्वरूप को बतला रहा हूँ । फिर सभी अन्य दार्शनिक एकान्त दृष्टि को लेकर अपने-अपने पक्ष का समर्थन और अन्य पक्ष का निषेध करते हैं । उनकी यह एकान्तदृष्टि यथार्थ नहीं है, क्योंकि एकान्तदृष्टि से वस्तु का यथार्थ स्वरूप नहीं जाना जाता । वस्तुस्वरूप को जानने के लिए अनेकान्त दृष्टि ही उपयोगी है । उसी का आश्रय लेकर मैं वस्तु के यथार्थ स्वरूप को व्यक्त कर रहा हूँ, ऐसा करना किसी की निन्दा करना नहीं, अपितु वस्तु के यथार्थ स्वरूप को प्रकट करना है । इसीलिए विद्वानों ने कहा है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003600
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1981
Total Pages498
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size23 MB
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