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छठा अध्ययन : आर्द्र कोय
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__ स्वार्थ के लिए जो अपनी चर्या या अवस्थाओं में परिवर्तन करता है, वही दाम्भिक है, परन्तु स्वार्थरहित पुरुष पूर्ण समभाव से जो उत्तमोत्तम अनुष्ठान करता है, वह दम्भ नहीं है । भगवान् महावीर स्वामी स्वार्थ रहित, ममत्वरहित एवं राग-द्वेष रहित हैं, वे सिर्फ प्राणियों के कल्याण के लिए धर्मोपदेश करते हैं। इसलिए वे महात्मा, महापुरुष और परम दयालु हैं, दाम्भिक नहीं हैं। जिस व्यक्ति को भाषा के दोषों का ज्ञान नहीं है, उसका भाषण ही दोष का कारण होता है। अतः धर्मोपदेश करने वाले को भाषा के दोषों का ज्ञान और उन दोषों का त्याग करना आवश्यक है। जो पुरुष भाषा के दोषों को जानकर उनका त्याग करता हुआ भाषण करता है, उसका भाषण करना दोषजनक नहीं होता अपितु धर्म की वृद्धि आदि अनेक गुणों का कारण होता है, इसलिए धर्मोपदेश के लिए भगवान् महावीर स्वामी का भाषण करना गुण है, दोष नहीं है; क्योंकि वे भाषा के दोषों को त्यागकर भाषण करने वाले और प्राणियों को पवित्र मार्गदर्शन करने वाले हैं। यद्यपि धर्मोपदेश करते समय भगवान् को अनेक प्राणियों के मध्य में स्थित होना पड़ता है, तथापि इससे उनकी कोई हानि नहीं होती। वे पहले जिस तरह एकान्त का अनुभव करते थे, उसी तरह इस समय भी एकान्त का ही अनुभव करते हैं, क्योंकि उनके अन्तःकरण में किसी के प्रति राग-द्वेष नहीं है, इसलिए हजारों प्राणियों के बीच में रहते हुए भी वे भाव से अकेले ही हैं । लोगों के मध्य में रहते हुए भी उनके शुद्ध भाव में कोई अन्तर नहीं आता। जैसे एकान्त स्थान में उनके शुक्लध्यान की स्थिति रहती है, उसी तरह हजारों मनुष्यों के मध्य में वे अविचल बने रहते हैं । ध्यान में अन्तर होने का कारण राग-द्वेष है। इसलिए राग-द्वोषरहित पुरुष के ध्यान में अन्तर होने का कोई कारण नहीं है । किसी विचारक ने कहा है
रागद्वेषौ विनिजित्य किमरण्ये करिष्यसि ?
अथ नो निजितावेतौ किमरण्ये करिष्यसि ? -यदि तुमने राग-द्वष को जीत लिया तो जंगल में रहकर क्या करोगे? और यदि रागद्वेष को जीता ही नहीं है, तो भी जंगल में रहकर क्या करोगे ?
तात्पर्य यह है कि राग-द्वष ही मनुष्य के ध्यान में अन्तर के कारण हैं, जिसमें ये नहीं है, वह महात्मा चाहे अकेला रहे या हजारों मनुष्यों से घिरा हुआ रहे, उसकी स्थिति में जरा भी अन्तर नहीं पड़ता है ! इस दृष्टि से लोगों के मध्य में रहना भगवान् के लिए दोष की बात नहीं है ।
जो पुरुष समस्त सावद्यकर्मों के त्यागी साधु हैं, उनको मोक्ष-प्राप्ति के लिए भगवान् पाँच महाव्रतों के पालन का उपदेश देते हैं, जो देश से सावद्यकर्मों का त्याग करने वाले श्रावक हैं, उनके लिए वे ५ अणुव्रतों का उपदेश देते हैं। भगवान् ५
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