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________________ सूत्रकृतांग सूत्र गोशालक के आक्षेप का उत्तर देते हुए आर्द्रकमुनि कहते हैं- भगवान् महावीर पहले, अब और भविष्य में भी अर्थात् सदैव एकान्त का ही अनुभव करते हैं । इसलिए उन्हें चंचल कहना तथा उनकी पूर्वकालिक चर्या के साथ वर्तमान चर्या की भिन्नता बताना तुम्हारा अज्ञान है । यद्यपि इस समय भगवान् महावीर विशाल जनसमूह में जाकर धर्मोपदेश देते हैं, तथापि उस श्रोतृसमुदाय में से किसी के प्रति न तो उनका राग है और न द्व ेष है, किन्तु सबके प्रति उनका भाव समान है । इसलिए महान् जनसमूह में स्थित होने पर भी वे पहले के समान एकान्त का ही अनुभव करते हैं । अतः उनकी पूर्व - अवस्था और वर्तमान अवस्था में वस्तुतः कोई अन्तर नहीं है । इस समय वे सर्वथा वीतराग हैं, पहले वे चतुर्विध घनघाती कर्मों का क्षय करने के लिए वाचिक संयम (मौन) रखते थे और एकान्त सेवन करते थे लेकिन अब घातिक कर्मों का नाश हो जाने के बाद शेष चतुविध अघातिक कर्मों के उदयानुसार विशाल जनसमूह की सभा में धर्मोपदेश की वाचिक प्रवृत्ति होती है । ३४८ वेन जीविका निर्वाह के लिए धर्मोपदेश करते हैं और न राग-द्वेष से प्रेरित होकर ही । अतः उनको चंचल बताना अज्ञान है । यह तीसरी गाथा का आशय है । इसके पश्चात् गोशालक के द्वारा जो यह आक्षेप लगाया गया था कि महावीर स्वामी की पहली चर्या दूसरी थी, अब दूसरी है, क्योंकि पहले वे अकेले रहते थे और अब वे अनेक मनुष्यों के साथ रहते हैं, अतः वे दाम्भिक हैं, सच्चे साधु नहीं हैं, इसका उत्तर देते हुए आर्द्रकमुनि कहते हैं कि भगवान् महावीर स्वामी सच्चे साधु हैं, वे दाम्भिक नहीं हैं । पहले उनको केवलज्ञान प्राप्त नहीं था, इसलिए वे उसकी प्राप्ति के लिए मौन रहते थे और एकान्तवास करते थे । उस समय उनके लिए यही उचित था, क्योंकि उस समय उनको सर्वज्ञता प्राप्त न होने से धर्मोपदेश करना ठीक नहीं था । वस्तुस्वरूप को पूर्णतया यथार्थ रूप से जानकर ही धर्मोपदेश देना उचित होता है । अब भ० महावीर को केवलज्ञान प्राप्त हो गया है, उसके प्रभाव से उन्होंने समस्त चराचर त्रसस्थावरमय प्राणिजगत् को जान लिया है । प्राणियों के अधःपतन का पथ कौन-सा है ? उनके कल्याण का साधन क्या है ? यह उन्होंने भली-भाँति केवलज्ञान से जान लिया है । भगवान् दयालु हैं, क्षेमंकर' हैं इसलिए समस्त प्राणियों के प्रति क्षेमंकर भाव से (पूर्ण समभाव से ) भगवान् का धर्मोपदेश होता है । भगवान् धर्मोपदेश देकर किसी भी प्रकार का स्वार्थसाधन करना नहीं चाहते, क्योंकि उनका अब कोई स्वार्थ शेष है ही नहीं, वे कृतकृत्य हो चुके हैं । अतः भगवान् महावीर पर स्वार्थ का आरोपण करना मिथ्या है । १. यहाँ भ० महावीर तथा उनके श्रमण और माहन को त्रस और स्थावर प्राणियों के लिए क्षेमंकर बताकर यह सिद्ध कर दिया है कि साधु को षट्काय के जीवों का क्षेम-कल्याण करने में कोई दोष नहीं है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003600
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1981
Total Pages498
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size23 MB
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