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________________ छठा अध्ययन : आर्द्रकीय ३४७ पास आया और कहने लगा - "आर्द्रक ! महावीर स्वामी के पास जाने से पहले मेरी बात सुन लो, बाद में जैसी इच्छा हो, वैसा करना । मैं तुम्हारे महावीर का पहला वृत्तान्त सुनाता हूँ, उसे सुन लो । महावीर स्वामी पहले जनसम्पर्करहित एकान्त स्थान में विचरण करते हुए कठोर तपस्या में लीन रहते थे, परन्तु इस समय वे तपस्या के क्लेश से पीड़ित होकर उसे छोड़-छाड़कर देवों, मनुष्यों, तिर्यंचों से खचाखच भरी हुई सभा में जाकर उपदेश देते हैं। उनकी तो बुद्धि ही बिगड़ गई है। अ उन्हें एकान्त अच्छा नहीं लगता । अतः अब वे अनेक शिष्यों को अपने साथ रखते हुए या एकत्र करके तुम जैसे भोले-भाले जीवों को मुग्ध करने के लिए विस्तृत रूप से धर्म की व्याख्या करते हैं । अपने पहले के आचरण को छोड़कर अब महावीर स्वामी ने उससे सर्वथा उलटा यह दूसरे प्रकार का आचरण अपनाया है, निश्चय ही ऐसा करके उन्होंने एक प्रकार से अपनी जीविका स्थापित कर ली है, क्योंकि अकेले विचरण करने वाले मनुष्य का लोग तिरस्कार किया करते हैं । अतः अस्थिरचित्त महावीर जनसमूह का महान् आडम्बर रचकर अब विचरण करते हैं । कहा भी है छत्र छात्र पात्र वस्त्र यष्टि च चर्चयति भिक्षुः । वेषेण परिकरेण च कियताऽपि विना न भिक्षाऽपि ॥ अर्थात् — भिक्षु जो अपने पास छत्र, छात्र, पात्र, वस्त्र और दण्ड रखता है, वह अपनी जीविका का साधन करने के लिए ही रखता है, क्योंकि वेष और आडम्बर के बिना जगत् में भिक्षा भी नहीं मिलती । इसलिए महावीर स्वामी ने भी जीविका के लिए ही इस मार्ग को स्वीकार किया है । महावीर स्वामी स्थिरचित्त नहीं हैं, किन्तु चंचल स्वभाव वाले हैं । वे पहले किसी शून्य वाटिका या किसी एकान्त स्थान में रहते हुए अन्त-प्रान्त आहार से अपना निर्वाह करते थे । किन्तु अब वे सोचते हैं कि रेत के कौर के समान स्वादरहित यह कार्य जिंदगी भर करना ठीक नहीं है, इसलिए अब वे भारी आडम्बर के साथ विचरण करते हैं । हे आर्द्रक ! इनके पहले के आचार और वर्तमान आचार में कोई मेल नहीं है, किन्तु धूप और छाया के समान एकान्त विरोध है, क्योंकि कहाँ तो एकाकी शान्त निर्भय होकर विचरण करना और कहाँ जनता की भीड़ के साथ घूमना ? यदि इस प्रकार आडम्बर के साथ विचरण करना ही धर्म का अंग है तो पहले महावीर स्वामी अकेले क्यों विचरण करते थे ? और यदि अकेले में ही रहना अच्छा था, तो इस समय वे लोगों के जमघट के बीच जाकर धर्मोपदेश क्यों देते हैं ? वस्तुतः वे चंचल हैं, किसी एक सिद्धान्त पर स्थिर नहीं रहते, न इनकी पहले पीछे की चर्या एक सरीखी है, किन्तु बदलती रहती है । इस कारण ये दाम्भिक हैं, धार्मिक नहीं है । इसलिए उनके पास तुम्हारा जाना ठीक नहीं है । तुम्हें उनसे कुछ भी मिलेगा, ऐसी आशा नहीं है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003600
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1981
Total Pages498
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size23 MB
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