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________________ ३४६ सूत्रकृतांग सूत्र (एवं) इस प्रकार (एगंत) या तो महावीर स्वामी का पहला व्यवहार एकान्त विचरण या एकान्तवास ही अच्छा (सम्यक् आचरण) हो सकता है, (अदुवा वि इण्हि) अथवा इस समय का अनेक लोगों के साथ रहने का व्यवहार ही अच्छा (सम्यक् आचरण) हो सकता है । (दोऽवण्णमन्नं जम्हा न समेति) किन्तु परस्परविरुद्ध दोनों आचार अच्छे नहीं हो सकते; क्योंकि दोनों में परस्पर विरोध है, मेल नहीं खाता है। ____ आर्द्र क मुनि उत्तर देते हैं-(पुचि च इण्हि च अणागयं वा एगंतमेव) भ० महावीर पूर्वकाल में (पहले), वर्तमान काल में (अब) तथा भविष्यत् काल में एकान्त का ही अनुभव करते हैं, इसलिए (पडिसंधयाइ) उनके पहले के, और इस समय के आचरण में परस्पर मेल है, विरोध नहीं है ॥३॥ (समणे माहणे वा लोग समिच्च) बारह प्रकार की तपःसाधना द्वारा अपने शरीर को तपाये हुए तथा 'जीवों को मत मारो' (माहन) उपदेश देने वाले भ० महावीर केवलज्ञान के द्वारा सम्पूर्ण चराचर लोक (चतुर्दश रज्ज्वात्मक) को जानकर (तसथावराणां खेमकरे) त्रस और स्थावर जीवों के कल्याण-क्षेम के लिए (सहस्समझे आइक्खमाणो वि) हजारों लोगों के बीच में धर्मकथन करते हुए भी (एगंतयं साहयइ) एकान्तवास साध लेते हैं, एकान्तवास का अनुभव कर लेते हैं। (तहच्चे) क्योंकि उनकी चित्तवृत्ति उसी प्रकार की बनी हुई रहती है या उनकी चित्तवृत्ति सदैव एक रूप रहती है ।।४।। (धम्म कहतस्स उ दोसो पत्थि) श्रत-चारित्ररूप धर्म का उपदेश करने वाले श्रमण भ० महावीर को कोई दोष नहीं होता, (खंतस्स दंतस्स जिइंदियस्स) क्योंकि भगवान् महावीर क्षमाशील अथवा समस्त परीषहों को सहन करने वाले, मनोविजेता (दान्त) एवं जितेन्द्रिय हैं, (भासाय दोसे य विवज्जगस्स भासाय णिसेवगस्स) अतः भाषा के दोषों को वजित करने वाले भगवान् के द्वारा भाषा का सेवन (प्रयोग) किया जाना (गुणे य) गुणकर है, दोषकारक नहीं ॥५॥ (लवावसंक्की समणे) घातिक कर्मों से बिलकुल दूर हुए श्रमण भगवान् महावीर (महव्वए पंच अणुव्वए य पंचासवसंवरे य) वर्तमान श्रमणों के लिए पाँच महाव्रत तथा श्रावकों के लिए पाँच अणुव्रत एवं पाँच आश्रवों व संवरों का उपदेश देते हैं । (तहेव पन्ने सामणियंमि विरति) तथा पूर्ण साधुत्व में वे विरति का तथा पुण्य एवं उपलक्षण से पाप, बंध-निर्जरा एवं मोक्ष का उपदेश देते हैं, (त्ति बेमि) यह मैं कहता हूँ ॥६॥ व्याख्या आक्षेप गोशालक के, उत्तर आर्द्र क मुनि के प्रत्येकबुद्ध राजकुमार आर्द्रक जब भगवान् महावीर स्वामी की सेवा में जा रहे थे, तब गोशालक उनकी इस इच्छा को बदलने व उन्हें बरगलाने के लिए उनके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003600
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1981
Total Pages498
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size23 MB
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